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[अष्टपाहुड अर्थ:--जिस पुरुष के परद्रव्य में परमाणु प्रमाण भी लेशमात्र मोहसे रति अर्थात् रागप्रीति हो तो वह पुरुष मूढ़ है, अज्ञानी है, आत्मस्वभावसे विपरीत है।
भावार्थ:--भेदविज्ञान होने के बाद जीव-अजीवको भिन्न जाने तब परद्रव्य को अपना न जाने तब उससे [ कर्तव्यबद्धि स्वामित्व की भावनासे ] राग भी नहीं होता है, यदि [ ऐसा ] हो तो जानो कि इसने स्व-परका भेद नहीं जाना है, अज्ञानी है, आत्मस्वभावसे प्रतिकूल है; और ज्ञानी होने के बाद चारित्र मोह का उदय रहता है तब तक कुछ राग रहता है उसको कर्मजन्य अपराध मानता है, उस राग से राग नहीं है इसलिये विरक्त ही है, अतः ज्ञानी परद्रव्यमें रागी नहीं कहलाता है, इसप्रकार जानना।। ६९ ।।
आगे इस अर्थ को संक्षेप में कहते हैं:----
अप्पा झायंताणं दसणसुद्धीण दिढ चरिताणं। होदि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्त चित्ताणं।। ७०।।
आत्मानं ध्यायतां दर्शनशुद्धीनां दृढचारित्राणाम्। भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्त चित्तानाम्।। ७०।।
अर्थ:---पूर्वोक्त प्रकार जिनका चित्त विषयोंसे विरक्त है, जो आत्माका ध्यान करते रहते हैं, जिनके बाह्य-अभ्यंन्तर दर्शन की शुद्धता है ओर जिनके दृढ़ चारित्र है, उनको निश्चय से निर्वाण होता है।
भावार्थ:---पहिले कहा था कि जो विषयोंसे विरक्त हो आत्माका स्वरूप जानकर आत्माकी भावना करते हैं वे संसार से छूटते हैं। इस ही अर्थको संक्षेपसे कहा है कि--जो इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होकर बाह्य-अभ्यंतर दर्शनकी शुद्धता से दृढ़ चारित्र पालते हैं उनको नियम से निर्वाण की प्राप्ति होती है, इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्ति सब अनर्थोंका मूल है, इसलिये इनसे विरक्त होने पर उपयोग आत्मा में लगे तब कार्यसिद्धि होती है।। ७०।।
आगे कहते हैं कि जो परद्रव्यमें राग है वह संसारका कारण है, इसलिये योगीश्वर आत्मा में भावना करते हैं:---
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जे आत्मने ध्यावे सुदर्शनशुद्ध , दृढचारित्र छे, विषये विरक्तमनस्क ते शिवपद लहे निश्चितपणे। ७०।
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