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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] आत्मा चारित्रवान् दर्शनज्ञानेन संयुतः आत्मा। सः ध्यातव्यः नित्यं ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन।। ६४।। अर्थ:--आत्मा चारित्रवान् है और दर्शन – ज्ञानसहित है, ऐसा आत्मा गुरुके प्रसाद से जानकर नित्य ध्यान करना। भावार्थ:--आत्मा का रूप दर्शन- ज्ञान -चारित्रमयी है, इसका रूप जैन गुरुओंके प्रसाद से जाना जाता है। अन्यमत वाले अपना बुद्धि कल्पित जेसे-तैसे मानकर ध्यान करते हैं उनके यथार्थ सिद्धि नहीं है, इसलिये जैनमतके अनुसार ध्यान करना ऐसा उपदेश है।। ६४ ।। आहे कहते हैं कि आत्माका जानना, भाना और विषयों से विरक्त होना ये उत्तरोत्तर दुर्लभ होने से दुःख से [- दृढ़तर पुरुषार्थसे ] प्राप्त होते हैं:--- दुक्खे णज्जइ अप्पा अप्पा णाऊण भावणा दुक्खं। भाविय सहावपुरिसो विसयेसु विरच्चए दुक्खं ।।६५।। दुःखेन ज्ञायते आत्मा आत्मानं ज्ञात्वा भावना दुःखम्। भावित स्वभावपुरुषः विषयेषु विरज्यति दुःखम्।। ६५ ।। अर्थ:--प्रथम तो आत्मा को जानते हैं वह दुःखसे जाना जाता है, फिर आत्माको जानकर भी भावना करना, फिर-फिर इसीका अनुभव करना दुःखसे [-उग्र पुरुषार्थसे] होता है, कदाचित् भावना भी किसी प्रकार हो जावे तो भायी है जिनभावना जिसने ऐसा पुरुष विषयोंसे विरक्त बड़े दुःख से [--अपूर्व पुरुषार्थ से ] होता है। भावार्थ:--आत्माका जानना, भाना, विषयोंसे विरक्त होना उत्तरोत्तर यह योग मिलना बहुत दुर्लभ है, इसलिये यह उपदेश है कि ऐसा सुयोग मिलने पर प्रमादी न होना।। ६५।। आगे कहते हैं कि जब तक विषयोंमें यह मनुष्य प्रवर्तता है तब तक आत्मज्ञान नहीं होता है:--- जीव जाणवो दुष्कर प्रथम, पछी भावना दुष्कर अरे! भावित निजात्मवभावने दुष्कर विषयवैराग्य छ। ६५। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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