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मोक्षपाहुड
[३११
बहिरलिंगेण जुहो अभंतरलिंग रहिय परियम्मो। सो सगचरित्त भट्ठो मोक्खपहविपासगो साहु।। ६१।।
बाह्यलिंगेन युतः अभ्यंतरलिंग रहित परिक्रा । सः स्वकचारित्रभ्रष्ट: मोक्षपथविनाशक: साधुः।। ६१।।
अर्थ:--जो जीव बाह्य लिंग – भेष सहित है और अभ्यंतर लिंग जो परद्रव्यों से सर्व रागादिक ममत्वभाव रहित ऐसे आत्मानुभव से रहित है तो वह स्व-चारित्र अर्थात् अपने आत्मस्वरूप के आचरण – चारित्र से भ्रष्ट है, परिकर्म अर्थात् बाह्य में नग्नता, ब्रह्मचर्यादि शरीर संस्कार से परिवर्तनवान द्रव्यलिंगी होने पर भी वह स्व-चारित्र से भ्रष्ट होने से मोक्षमार्गका विनाश करने वाला है। [अतः मुनि - साधुको शुद्धभावको जानकर निज शुद्ध बुद्ध एकस्वभावी आत्मतत्त्व में नित्य भावना ( -एकाग्रता) करनी चाहिये।] ( श्रुतसागरी टीका से)
भावार्थ:--यह संक्षेप से कहा जानो कि जो बाह्यलिंग संयुक्त है और अभ्यंतर अर्थात् भावलिंग रहित है वह स्वरूपाचरण चारित्र से भ्रष्ट हआ मोक्षमार्ग का नाश करने वाला है ।। ६१।।
आगे कहते हैं कि – जो सुख से भावित ज्ञान है वह दु:ख आने पर नष्ट होता है, इसलिये तपश्चरण सहित ज्ञान को भाना:--
सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि। तम्हां जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए।।६२।।
सुखेन भावितं ज्ञानं दुःखे जाते विनश्यति। तस्मात् यथा बलं योगी आत्मानं दुःखैः भावयेत्।। ६२ ।।
अर्थ:--सुख से भाया हुआ ज्ञान है वह उपसर्ग-परिषहादि के द्वारा दुःख उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाता है, इसलिये यह उपदेश है कि जो योगी ध्यानी मुनि है वह
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जे बाह्यलिंगे युक्त , आंतरलिंग रहित क्रिया करे, ते स्वकचरितथी भ्रष्ट , शिवमारगविनाशक श्रमण छ। ६१।
सुखसंग भावित ज्ञान तो दुःखकाळमां लय थाय छे, तेथी यथा बळ दुःखसह भावो श्रमण निज आत्मने। ६२।
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