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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३०४] । अष्टपाहुड जह फलिहमणि विसुद्धो परदव्वजुहो हवेइ अण्णं सो। तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो।। ५१।। यथा स्फटिकमणिः विशुद्धः परद्रव्ययुतः भवत्यन्यः सः। तथा रागादिवियुक्तः जीव: भवति स्फुटमन्यान्यविधः।। ५१।। अर्थ:--जैसे स्फटिकमणि विशुद्ध है, निर्मल है, उज्ज्वल है वह परद्रव्य जो पीत, रक्त, हरित पुष्पादिकसे युक्त होने पर अन्य सा दिखता है, पीतादिवर्णमयी दिखता है, वैसे ही जीव विशुद्ध है, स्वच्छ स्वभाव है परन्तु यह [अनित्य पर्याय में अपनी भूल द्वारा स्व से च्युत होता है तो] रागद्वेषदिक भावोंसे युक्त होने पर अन्य अन्य प्रकार हुआ दिखता है यह प्रगट है। भावार्थ:--यहाँ ऐसा जानना कि रागादि विकार हैं वह पुद्गल के हैं और ये जीवके ज्ञान में आकार झलकते है तब उनसे उपयक्त होकर इसप्रकार जानता है कि ये हैं, जब तक इसका भेदज्ञान नहीं होता है तब तक जीव अन्य अन्य प्रकाररूप अनुभव में आता है। यहाँ स्फटिकमणिका दृष्टांत है, उसके अन्यद्रव्य- पुष्पादिकका डाक लगता है तब अन्यसा दिखता है, इसप्रकार जीवके स्वच्छभाव की विचित्रता जानना।। ५१ ।। इसलिये आगे कहते हैं कि जब तक मुनिके [ मात्र चारित्र-दोषमें ] राग-द्वेष का अंश होता है तब तक सम्यग्दर्शन को धारण करता हुआ भी ऐसा होता है:--- देवगुरुम्मि य भत्तो साहम्मियसंजदेसु अणुरत्तो। सम्मत्तमुव्वहंतो झाणर ओ होदि जोई सो।। ५२।। देवे गुरौ च भक्तः साधर्मिके च संयतेषु अनुरक्तः। सम्यक्त्वमुद्वहन् ध्यानरतः भवति योगी सः।। ५२।। - - -- - निर्मळ स्फटिक परद्रव्यसंगे अन्यरूपे थाय छे, त्यम जीव छ नीराग पण अन्यान्यरूपे परिणमे। ५१। जे देव-गुरुना भक्त ने सहधर्मीमुनि-अनुरक्त छे, सम्यक्त्वना वहनार योगी ध्यानमा रत होय छ। ५२। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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