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मोक्षपाहुड]
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सिद्धः शुद्धः आत्मा सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च। स: जिनवरैः भणितः जानीहि त्वं केवलं ज्ञानं ।। ३५।।
अर्थ:--आत्मा जिनवरदेव ने ऐसा कहा है, केसा है ? सिद्ध है--किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है स्वयंसिद्ध है, शुद्ध है---कर्ममलसे रहित है, सर्वज्ञ है---सब लोकालोक को जानता है और सर्वदर्शी है---सब लोक-अलोक को देखता है, इसप्रकार आत्मा है वह हे मुनि! उसहीको तू केवलज्ञान जान अथवा उस केवलज्ञान ही को आत्मा जान। आत्मा में और ज्ञान में कुछ प्रदेशभेद नहीं है, गुण-गुणी भेद है वह गौण है। यह आराधना का फल पहिले केवलज्ञान कहा, वही है।। ३५ ।।
आगे कहते हैं कि जो योगी जिनदेवके मतसे रत्नत्रयकी आराधना करता है वह आत्माका ध्यान करता है:---
रयणत्तयं पि जोई आराहइ जो हु जिणवरमएण। सो झायदि अप्पाणं परिहरइ परं ण संदेहो।। ३६ ।।
रत्नत्रयमपि योगी आराधयति यः स्फूटं जिनवरमतेन। सः ध्यायति आत्मानं परिहरति परं न सन्देहः।। ३६ ।।
अर्थ:--जो योगी ध्यानी मुनि जिनेश्वरदेवके मतकी आज्ञासे रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी निश्चयसे आराधना करता है वह प्रगटरूप से आत्माका ही ध्यान करता है, क्योंकि रत्नत्रय आत्माका गुण है और गुण-गुणीमें भेद नहीं है। रत्नत्रय की आराधना है वह आत्माकी
आराधना ह वह ही परद्रव्यको छोड़ता है इसमें संदेह नहीं है।
भावार्थ:--सुगम है।। ३६ ।।
पहिले पूछा था कि आत्मा में रत्नत्रय कैसे है उसका उत्तर अब आचार्य कहते हैं:---
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जे योगी आराधे रतनत्रय प्रगट जिनवरमार्गथी, ते आत्मने ध्यावे अने पर परिहरे;-शंका नथी। ३६ ।
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