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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] [२८३ ये ध्यायंति स्वद्रव्यं परद्रव्यं पराङ्मुखास्तु सुचरित्राः। ते जिनवराणां मार्गे अनुलग्नाः लभते निर्वाणम्।।१९।। अर्थ:--जो मुनि परद्रव्यसे पराङ्मुख होकर स्वद्रव्य जो निज आत्मद्रव्यका ध्यान करते हैं वे प्रगट सुचरित्र अर्थात् निर्दोष चारित्रयुक्त होते हुए जिनवर तीर्थंकरोंके मार्गका अनुलग्न - ( अनुसंधान , अनुसरण) करते हुए निर्वाणको प्राप्त करते हैं। भावार्थ:--परद्रव्य का त्याग कर जो अपने स्वरूप का ध्यान करते हैं वे निश्चय - चारित्ररूप होकर जिनमार्ग में लगते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करेत हैं।। १९ ।। आगे कहते हैं कि जिनमार्ग में लगा हुआ शुद्धात्माका ध्यान कर मोक्षको प्राप्त करता है, तो क्या उससे स्वर्ग नहीं प्राप्त कर सकता है ? अवश्य ही प्राप्त कर सकता है:--- जिणवरमएण जोई झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं। जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइकिं तिण सुरलोय।।२०।। जिनवरमतेन योगी ध्याने ध्यायति शुद्धमात्मानम्। येन लभते निर्वाणं न लभते किं तेन सुरलोकम्।।२०।। अर्थ:-- योगी ध्यानी मुनि है वह जिनवर भगवानके मतसे शुद्ध आत्माको ध्यानमें ध्याता है उससे निर्वाण को प्राप्त करता है, तो उससे क्या स्वर्ग लोक नहीं प्राप्त कर सकते हैं ? अवश्य ही प्राप्त कर सकते हैं। भावार्थ:--कोई जानता होगा कि जो जिनमार्ग में लगकर आत्माका ध्यान करता है वह मोक्षको प्राप्त करता है और स्वर्ग तो इससे होता नहीं है, उसको कहा है कि जिनमार्ग में प्रवर्तने वाला शुद्ध आत्मा का ध्यान के मोक्ष प्राप्त करात है, तो उससे स्वर्ग लोक क्या कठिन है ? यह तो उसके मार्गमें ही है।। २०।। आगे इस अर्थको दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैं:--- जिनदेवमत-अनुसार ध्यावे योगी निजशुद्धात्मने! जेथी लहे निर्वाण, तो शुं नव लहे सुरलोकने? २० । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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