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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] /२८१ परदव्वादो दुग्गइ सव्वादो हु सुग्ग्ई होइ। इय णाऊण सदव्वे कुणइ रई विरह इयरम्मि।।१६।। परद्रव्यात् दुर्गतिः स्वद्रव्यात् स्फुटं सुगतिः भवति। इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रतिं विरतिं इतरस्मिन्।।१६।। अर्थ:--परद्रव्य से दुर्गति होती है और स्वद्रव्यसे सुगति होती है यह स्पष्ट ( – प्रगट) जानो, इसलिये हे भव्यजीवो! तुम इस प्रकार जानकर स्वद्रव्यमें रति करो और अन्य जो परद्रव्य उनसे विरति करो। ___ भावार्थ:--लोकमें भी यह रीति है कि अपने द्रव्यसे रति करके अपना ही भोगता है वह तो सुख पाता है, उस पर कुछ आपत्ति नहीं आती है और परद्रव्यसे प्रीति करके चाहे जैसे लेकर भोगता है उसको उसको दुःख होता है, आपत्ति उठानी पड़ती है। इसलिये आचार्य ने संक्षेप में उपदेश दिया है कि अपने आत्मस्वभावमें रति करो इससे सुगति है, स्वर्गादिक भी इसी से होते हैं और मोक्ष भी इसी से होता है और परद्रव्य से प्रीति मत करो इससे दुर्गति होती है, संसार में भ्रमण होता है। यहाँ कोई कहता है कि स्वद्रव्यमें लीन होने से मोक्ष होता है और सुगति – दुर्गति तो परद्रव्य की प्रीति से होती है ? उसको कहते हैं कि---यह सत्य है परन्तु यहाँ इस आशय से कहा है कि परद्रव्य से विरक्त होकर स्वद्रव्य में लीन होवे तब विशुद्धता बहुत होती है, उस विशुद्धता के निमित्त से शुभकर्म भी बँधते हैं और जब अत्यंत विशुद्धता होती है तब कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष होता है, इसलिये सुगति-दुर्गतिका होना कहा यह युक्त है, इसप्रकार जानना चाहिये।। १६ ।। आगे शिष्य पूछता है कि परद्रव्य कैसा है ? उसका उत्तर आचार्य कहते हैं:--- आदसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवदि। तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरिसीहिं।।१७।। परद्रव्यथी दुर्गति, खरे सुगति स्वद्रव्यथी थाय छे; -ओ जाणी, निजद्रव्ये रमो, परद्रव्यथी विरमो तमे। १६ । आत्मस्वभावेतर सचित्त, अचित्त, तेमज मिजे, ते जाणवू परद्रप्र-सर्वज्ञे का अवितथपणे। १७। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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