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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] [ २७९ तथा अन्य लौकिक प्रयोजन के लिये आरंभ से रहित है और आत्मस्वभावमें रत है, लीन है, निरन्तर स्वभावकी भावना सहित है, वह मुनि निर्वाण को प्राप्त करता है। भावार्थ:---जो बहिरात्माके भावके छोड़कर अन्तरात्मा बनकर परमात्मा में लीन होता है वह मोक्ष प्राप्त करता है। यह उपदेश बताया है।। १२ ।। आगे बंध और मोक्षके कारणका संक्षेपरूप आगमका वचन कहते हैं:--- परदव्वरओ बज्झदि विरओ मुच्चेइ विविहकम्मेहिं। एसो जिणउवदेसो समासदो बंधमुक्खस्स।।१३।। परद्रव्यरतः बध्यते विरतः मुच्यते विविधकर्मभिः। एषः जिनोपदेशः समासतः बंधमोक्षस्य।।१३।। अर्थ:--जो जीव परद्रव्यमें रत है, रागी है वह तो अनेक प्रकारके कर्मों से बाँधता है, कर्मोंका बंध करता है और जो परद्रव्यसे विरत है---रागी नहीं है वह अनेक प्रकारके कर्मों से छूटता है, तह बन्धका और मोक्षका संक्षेपमें जिनदेव का उपदेश है। भावार्थ:-- बंध-मोक्षके कारणकी कथनी अनेक प्रकार से है उसका यह संक्षेप है:-- जो परद्रव्य से रागभाव तो बंधका कारण और विरागभाव मोक्षका कारण है, इसप्रकार संक्षेप से जिनेन्द्रका उपदेश है।। १३ ।। आगे कहते हैं कि जो स्वद्रव्य में रत है वह सम् होता है और कर्मोंका नाश करता है:--- सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण । सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ 'दुट्ठट्ठकम्माइं।।१४।। १ 'सदो' के स्थानपर ' 'सओ' पाठान्तर। २ पाठान्तरः – सो साहू। ३ मु० सं० प्रति में 'दुट्ठकम्माणि' पाठ है। परद्रव्यरत बंधाय विरत मुकाय विधविध कर्मथी; -आ, बंधमोक्ष विषे जिनेश्वरदेशना संक्षेपथी। १३ । रे! नियमथी निजद्रअरत साधु सुदृष्टि होय छे, सम्यक्त्वपरिणत वर्ततो दुष्टाष्ट कर्मो क्षय करे। १४ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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