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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [अष्टपाहुड (सम्यक्त्व के बाह्य कारण) विशेष रूप से तो अनेक हैं। उनमें से कुछके तो अरिहंत बिम्बका देखना, कुछके जिनेन्द्रके कल्याणक आदिकी महिमा देखना, कुछके जातिस्मरण, कुछके वेदना का अनुभव, कुछके धर्म-श्रवण तथा कुछके देवोंकी ऋद्धिका देखना--इत्यादि बाह्य कारणों द्वारा मिथ्यात्वकर्म का उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व होता है। तथा इन सात प्रकृतियों में से छह का तो उपशम या क्षय हो और एक सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय हो तब क्षयोपक्षम सम्यक्त्व होता है। इस प्रकृति के उदय से किंचित् अतिचार- मल लगता है। तथा इन सात प्रकृतियोंका सत्ता में से नाश हो तब क्षायिक सम्यक्त्व होता है। इसप्रकार उपशमादि होनेपर जीवके परिणाम-भेदसे तीन प्रकार होते हैं; वे परिणाम अति सूक्ष्म हैं, केवलज्ञानगम्य हैं, इसलिये इन प्रकृतियोंके द्रव्य पुद्गल परमाणुओंके स्कंध हैं, वे अतिसूक्ष्म हैं और -नमेह फल देने की शक्तिरूप अनुभाग है वह अतिसूक्ष्म हैं वह छद्मस्थके ज्ञानगम्य नहीं है। तथा उनका उपशमादि होनेसे जीवके परिणाम भी सम्यक्त्वरूप होते हैं, वे भी अतिसूक्ष्म होते हैं, वे भी केवलज्ञानगम्य हैं। तथापि जीवके कुछ परिणाम छद्मस्थके ज्ञान में आने योग्य होते हैं, वे उसे पहिचाननेके बाह्य चिन्ह हैं, उनकी परिक्षा करके निश्चय करने का व्यवहार है; ऐसा न होते छद्मस्थ वयवहारी जीवके सम्यक्त्वका निश्चय नहीं होगा और तब अस्तिक्यका अभाव सिद्ध होगा, व्यवहारका लोप होगा-यह महान दोष आयेगा। इसलिये बाह्य चिन्होंको आगम, अनुमान तथा स्वानुभवसे परीक्षा करके निश्चय करना चाहिये। वे चिन्ह कौन से हैं सो लिखते हैं :-मुख्य चिन्ह तो उपाधिरहित शुद्ध ज्ञान-चेतना स्वरूप आत्मा की अनुभूति है। यद्यपि यह अनुभूति ज्ञानका विशेष है, तथापि वह सम्यक्त्व होनेपर होती है, इसलिये उसे बाह्य चिन्ह कहते हैं। ज्ञान तो अपना अपने को स्वसंवेदनरूप है; उसका, रागादि विकार रहित शुद्धज्ञानमात्र का अपने को आस्वाद होता है कि-' जो यह शुद्ध ज्ञान है सो मैं हूँ और ज्ञान में जो रागादि विकार हैं वे कर्मके निमित्त से उत्पन्न होते हैं, वह मेरा स्वरूप नहीं हैं '-इसप्रकार भेद ज्ञानसे ज्ञानमात्र के आस्वादन को ज्ञान की अनुभूति कहते हैं, वही आत्माकी अनुभूति है, तथा वही शुद्धनय का विषय है। ऐसी अनुभूति से शुद्धनय से द्वारा ऐसा भी श्रद्धान होता है कि सर्व जीव कर्मजनित रागादि भाव से रहित अनंत चतुष्टय मेरा स्वरूप है, अन्य सब भाव संजोगजनित है; ऐसी आत्मा की अनुभूति सो सम्यक्त्वका मुख्य चिन्ह है। यह मिथ्यात्व अनंतानुबन्धी के अभावमें सम्यक्त्व होता है उसका चिन्ह है; उस चिन्ह को ही सम्यक्त्व कहना सो व्यवहार है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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