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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates भावपाहुड [२६९ स्वरूपके साधक अहिंसा आदि महाव्रत तथा रत्नत्रयरूप प्रवृत्ति, समिनि, गुप्तिरूप प्रर्वतना और इसमें दोष लगने पर अपनी निंदा गर्हादिक करना, गुरुओंका दिया हुआ प्रायश्चित लेना, शक्ति के अनुसार तप करना, परिषह सहना, दसलक्षणधर्म में प्रवर्तना इत्यादि शुद्धात्मा के अनुकूल क्रियारूप प्रर्वतना, इनमें कुछ रागका अंश रहता है तब तक शुभकर्म का बंध होता है, तो भी वह प्रधान नहीं है, क्योंकि इनमें प्रर्वतनेवाले के शुभकर्म के फल की इच्छा नहीं है, इसलिये अबंधतुल्य है,---इत्यादि प्रवृत्ति आगमोक्त 'व्यवहार-मोक्षमार्ग' है। इसमें प्रवृत्तिरूप परिणाम हैह तो भी निवृत्ति प्रधान है, इसलिये निश्चय-मोक्षमार्ग में विरोध नहीं है। इसप्रकार निश्चय-व्यवहारस्वरूप मोक्षमार्ग का संक्षेप है। इसी को 'शुद्धभाव' कहा है। इसमें भी सम्यग्दर्शन को प्रधान कहा है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना सब व्यवहार मोक्षका कारण नहीं है और सम्यग्दर्शनके व्यवहारमें जिनदेव की भक्ति प्रधान है, यह सम्यग्दर्शनको बताने के लिये मुख्य चिन्ह है, इसलिये जिन भक्ति निरन्तर करना और जिन आज्ञा मानकर आगमोक्त मार्गमें प्रवर्तना यह श्रीगुरुका उपदेश है। अन्य जिन-आज्ञा सिवाय सब कुमार्ग हैं, उनका प्रसंग छोड़ना; इसप्रकार करने से आत्मकल्याण होता है। १- 'शुद्धभाव' का निरूपण दो प्रकार से किया गया है; जैसे 'मोक्षमार्ग दो नहीं हैं' किन्तु उसका निरूपण दो प्रकार का है, इसीप्रकार शुद्धभाव को यहाँ दो प्रकार के कहे हैं वहाँ निश्चयनय से ओर व्यवहारनयसे कहा है ऐसा समझना चाहिये। निश्चय सम्यग्दर्शनादि है उसे ही व्य० मान्य है और उसे ही निरतिचार व्यवहार रत्नत्रयादि में व्यवहार से 'शुद्धत्व' अथवा 'शुद्ध संप्रयोगत्व' का आरोप आता है जिसको व्यवहार में 'शुद्धभाव' कहा है, उसी को निश्चय अपेक्षा अशुद्ध कहा है- विरुद्ध कहा है, किन्तु व्यवहारनय से व्यवहार विरुद्ध नहीं है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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