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[अष्टपाहुड भावार्थ:--परद्रव्यसे ममत्वभावको 'मोह' कहते हैं। 'मद'---जाति आदि परद्रव्य संबंधसे गर्व होने को 'मद' कहते हैं। ‘गौरव' तीन प्रकार का है---ऋद्धि गौरव, सात गौरव और रसगौरव। जो कुछ तपोबलसे अपनी महंतता लोकमें हो उसका अपनेको मद आवे, उसमें हर्ष माने वह 'ऋद्धिगौरव' है। यदि अपने शरीरमें रोगादिक उत्पन्न न हों तो सुख माने तथा प्रमाद यक्त होकर अपना महंतपना माने 'सातगौरव' है। यदि मिष्ट-पष्ट रसीला आहारादिक मिले तो उसके निमित्तसे प्रमत्त होकर शयनादिक करे ‘रसगौरव' है। मुनि इसप्रकार गौरव से तो रहित हैं और परजीवों की करुणासे सहित हैं; ऐसा नहीं है कि परजीवोंसे मोहममत्व नहीं है इसलिये निर्दय होकर उनको मारते हैं, परन्तु जब तक राग अंश रहता है तब तक पर जीवों की करुणा ही करते हैं, उपकारबुद्धि रहती है। इसप्रकार ज्ञानी मुनि पाप जो अशुभकर्म उसका चारित्र के बल से नाश करते हैं।। १५९ ।।
आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार मूलगुण और उत्तरगुणों से मंडित मुनि हैं वे जिनमत में शोभा पाते हैं:---
गुणगणमणिमालाए जिणमयगयणे णिसायरमुणिंदो। तारावलिपरियरिओ पुण्णिमइंदुव्व पवणपहे।। १६०।। गुणगण मणिमालया जिनमतगगने निशाकरमुनींद्रः। तारावलीपरिकरितः पूर्णिमेन्दुरिव पवनपथं ।। १६० ।।
अर्थ:--जैसे पवनपथ (-आकाश) में तारोंकी पंक्तिके परिवार से वेष्टित पर्णिमा का चंद्रमा शोभा पाता है, वैसे ही जिनमतरूप आकाशमें गुणोंके समूहरूपी मणियोंकी माला से मुनीन्द्ररूपी चंद्रमा शोभा पाता है।
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मद-मोह-गारवमुक्त ने जे युक्त करूणाभावथी, सघळा दुरितरूप थंभने घाते चरण-तरवारथी। १५९ ।
तारावली सह जे रीते पूर्णेन्दु शोभे आभमां, गुणवृंदमणिमाळा सहित मुनिचंद्र जिनमत गगनमां। १६० ।
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