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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates भावपाहुड] [२५३ यथा फणिराजः शोभते फणमणि माणिक्यकिरण विस्फुरितः। तथा विमलदर्शनधरः जिनभक्ति: प्रवचने जीवः ।। १४५।। अर्थ:--जैसे फणिराज (धरणेन्द्र) है सो फण जो सहस्त्र फण उनमें लगे हुए मणियों के बीच जो लाल - माणिक्य उनकी किरणोंसे विस्फुरित ( देदीप्यमान) शोभा पाता है, वैसे ही जिनभक्तिसहित निर्मल सम्यक्दर्शन का धारक जीव प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग के प्ररूपण में शोभा पाता है। भावार्थ:---सम्यक्त्व सहित जीवकी जिन-प्रवचनमें बड़ी अधिकता है। जहाँ - तहाँ ( सब जगह) शास्त्रों में सम्यक्त्वकी ही प्रधानता कही है।। १४५।। आगे सम्यग्दर्शन सहित लिंग है उसकी महिमा कहते हैं:--- जह तारायणसहियं ससहरबिंब खमंडले विमले। भाविय तववयविमलं जिणलिंगं दंसणविसुद्धं ।। १४६ ।। यथा तारागणसहितं शशधरबिंबं खमंडले विमले। भावतं तपोव्रतविमलं जिनलिंगं दर्शन विशुद्धम्।।१४६ ।। अर्थ:--जैसे निर्मल आकाश मंडल में तारोंके समूह सहित चन्द्रमाका बिंब शोभा पाता है, वैसे ही जिनशासन में दर्शनसे विशुद्ध और भावित किये हुए तप तथा व्रतोंसे निर्मल जिनलिंग है सो शोभा पाता है। भावार्थ:--जिनलिंग अर्थात् 'निग्रंथ मुनिभेष' यद्यपि तप-व्रतसहित निर्मल है, तो भी सम्यग्दर्शन के बिना शोभा नहीं पाता है। इसके होने पर ही अत्यन्त शोभायमान होता है।। १४६।। आगे कहते हैं कि ऐसा जानकर दर्शनरत्नको धारण करो, ऐसा उपदेश करते हैं:-- १ मुद्रित संस्कृत प्रति में 'तह वयविमलं' ऐसा पाठ है, जिसकी संस्कृत तथा व्रतमिलं' है। २ इस गाथाका चतुर्थ पाद यतिभंग है। इसकी जगह 'जिनलिगं दसणेम सुविसुद्धं' होना ठीक जाँचता है। शशिबिंब तारकवृंद सह निर्मळ नभे शोभे घj, त्यम शोभतुं तपव्रतविमळ जिनलिंग दर्शन निर्मळू। १४६ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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