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भावपाहुड]
आगे कहते हैं कि---पूर्वोक्त तीन सौ त्रेसठ पाखण्डियों का मार्ग छोड़कर जिनमार्ग में मन लगाओ:---
पासंडी तिणि सया तिसट्टि भेया उमग्ग मुत्तूण। रुंभहि मणु जिणमग्गे असप्पलावेण किं बहुणा।। १४२।।
पाखण्डिनः त्रीणि शतानि त्रिषष्टि भेदाः उन्मार्ग मुक्त्वा। रुन्द्धि मन: जिनमार्गे असत्प्रलापेन किं बहुना।। १४२।।
अर्थ:---हे जीव! तीन सौ त्रेसठ पाखण्ड़ियों के मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में अपने मनको रोक ( लगा) यह संक्षेप है और निरर्थक प्रलापरूप कहनेसे क्या ?
भावार्थ:--इसप्रकार मिथ्यात्वका वर्णन किया। आचार्य कहते हैं कि बहुत निरर्थक वचनालाप से क्या ? इतना ही संक्षेप से कहते है कि तीनसौ त्रेसठ कुवादि पाखण्डी कहे उनका मार्ग छोड़कर जिनमार्ग में मनको रोको, अन्यत्र न जाने दो। यहाँ इतना और विशेष जानना कि--कालदोष से इस पंचमकाल में अनेक पक्षपातसे मन-मतांतर हो गये हैं, उनको भी मिथ्या जानकर उनका प्रसंग न करो। सर्वथा एकान्तका पक्षपात छोड़कर अनेकान्तरूप जिनवचन की शरण लो।। १४२ ।।
आगे सम्यग्दर्शनका निरूपण करते हैं, पहिले कहते हैं कि 'सम्यग्दर्शन रहित प्राणी चलता हुआ मृतक' है:---
जीवविमुक्त: शवः दर्शनमुक्तश्च भवति चलशवः। शवः लोके अपूज्यः लोकोत्तरे चलशवः ।। १४३।।
जविविमुक्को सबओ दसणमुक्को य होइ चलसबओ। सबओ लोयअपुज्जो लोउत्तरयम्मि चलसबओ।। १४३।।
अर्थ:--लोकमें जीवरहित शरीरको 'शव' कहते हैं, 'मृतक' या 'मुरदा' कहते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन रहित पुरुष ‘चलता हुआ मृतक' है।
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उन्मार्गने छोडी त्रिशत-तेसठप्रमित पाखंडीना, जिनमार्गमां मन रोक; बहु प्रलपन निरर्थथी शं भला ? १४२।
जीवमुक्त शब कहेवार्य चल शब' जाण दर्शनमुक्तने; शब लोक मांही अपूज्य, चल शब होय लोकोत्तर विषे। १४३ ।
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