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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २४४] [अष्टपाहुड उत्थरइ जा ण जरओ रोयग्गी जा ण डहइ देहउडिं। इन्दिय बलं ण वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ।। १३२।। आक्रमते यावन्न जरा रोगाग्निर्यावन्न दहति देहकुटीम्। इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महितम्।।१३२।। अर्थ:--हे मुने! जब तक तेरे जरा (बुढ़ापा) न आवे तथा जब तक रोगरूपी अग्नि तेरी देहरूपी कुटी को भस्म न करे और जब तक इन्द्रियोंका बल न घटे तब तक अपना हित करलो। भावार्थ:--वृद्ध अवस्थामें देह रोगोंसे जर्जरित हो जाता है, इन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं तब असमर्थ होकर इस लोकके कार्य उठना-बैठना भी नहीं कर सकता है तब परलोकसम्बन्धी तपश्चरणादिक तथा ज्ञानाभ्यास और स्वरूपका अनुभवादि कार्य कैसे करे ? इसलिये यह उपदेश है कि जब तक सामर्थ्य है तब तक अपना हितरूप कार्य कर लो।। १३२।। आगे अहिंसाधर्म के उपदेशका वर्णन करते हैं:--- छज्जीव छडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोएहिं। कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्तं'।। १३३।। षट्जीवान् षडायतनानां नित्यं मनोचचनकाययोगैः। कुरु दयां परिहर मुनिवर भावय अपूर्व महासत्वम्।। १३३।। अर्थ:--हे मुनिवर ! तू छहकाय के जीवों पर दया कर और छह अनायतों को १ मुद्रित संस्कृत प्रति में 'महासत्त' ऐसा संबोधन पद किया है जिसका सं० छाया 'महासत्व' है। २ मुद्रित संस्कृत प्रति में 'षट्जीवषटयतनानां' एक पद किया है। रे आमे न जरा, गदाग्नि दहे न तनकुटि ज्यां लगी, बळ इन्द्रियोनुं नव घटे, करी ले तुं निजहित त्यां लगी। १३२ । छ अनायतन तज, कर दया षटक्ववनी पिविधे सदा, महासत्त्वने तुं भाव रे! अपूरवपणे हे मुनिवरा! १३३ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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