SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २४२] / अष्टपाहुड भावार्थ:--- तीर्थंकर गणधर चक्रवर्ती आदि पदों के सुख बड़े अभ्युदय सहित हैं, उनको भावसहित सम्यग्दृष्टि मुनि पाते हैं। यह सब उपदेशका संक्षेप कहा है इसलिये भावसहित मुनि होना योग्य है।। १२८ ।।। आगे आचार्य कहते हैं कि जो भावश्रमण हैं उनको धन्य हैं, उनको हमारा नमस्कार हो:-- ते धण्णा ताण णमो दंसणवरणाणचरण सुद्धाणं। भावसहियाण णिच्चं तिविहेण पणट्ठमायाणं ।। १२९ ।। ते धन्याः तेभ्य नमः दर्शनवरज्ञानचरणशुद्धेभ्यः। भावसहितेभ्यः नित्यं त्रिविधेन प्रणष्टमायेभ्यः।। १२९ ।। अर्थ:---आचार्य कहते हैं कि जो मुनि सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ (विशिष्ट) ज्ञान और निर्दोष चारित्र इनसे शुद्ध हैं इसीलिये भाव सहित हैं और प्रणष्ट हो गई है माया अर्थात् कपट परिणाम जिनके ऐसे हैं वे धन्य हैं। उनके लिये हमारा मन-वचन-काय से सदा नमस्कार हो। भावार्थ:--भावलिंगीयोंमें जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र से शुद्ध हैं उनके प्रति आचार्य को भक्ति उत्पन्न हुई है, इसलिये उनको धन्य कहकर नमस्कार किया है वह युक्त है, जिनके मोक्षमार्ग में अनुराग है, उनमें मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति में प्रधानता दिखती है, उनको नमस्कार करें।। १२९ ।। आगे कहते हैं कि जो भावश्रमण हैं वे देवादिककी ऋद्धि देखकर मोहको प्राप्त नहीं होते हैं:-- इड्ढिमतुलं विउव्विय किण्णरकिंपुरिसअमरखयरेहिं। तेहिं विण जाइ मोहं जिण भावण भाविओ धीरो।।१३०।। ते छे सुधन्य, त्रिधा सदैव नमस्करण हो तेमने, जे भावयुत, दृगज्ञानचरणविशुद्ध , माया मुक्त छ। १२९ । खेचर-सुरादिक वियिाथी ऋद्धि अतुल करे भले, जिनभावना परिणत सुधीर लहे न त्यां पण मोहने। १३०। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy