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[ अष्टपाहुड
अप्रमत्त में स्वरूप साधन तो प्रमाद नहीं है, परन्तु कुछ स्वरूपके साधने का राग व्यक्त है, इसलिये यहाँ भी सामायिक का एकदेश ही कहा है। अपूर्वकरण - अनिवृत्तिकरण में राग व्यक्त नहीं है, अव्यक्तकषायका सद्भाव है, इसलिये सामायिक चारित्र की पूर्णता कही । सूक्ष्मसांपरायमें अव्यक्त कषाय भी सूक्ष्म रह गई, इसलिये इसका नाम 'सूक्ष्मसांपराय' रखा। उपशांतमोह क्षीणमोहमें कषायका अभाव ही है, इसलिये जैसा आत्माका मोह विकाररहित शुद्धि स्वरूप था उसका अनुभव हुआ, इसलिये 'यथाख्यातचरित्र' नाम रखा। ऐसे मोहकर्मके अभावकी अपेक्षा तो यहाँ ही उत्तर गुणोंकी पूर्णता कही जाती है, परन्तु आत्माका स्वरूप अनन्तज्ञानादि स्वरूप है सो घातिकर्मके नाश होने पर आनन्तज्ञानादि प्रगट होते हैं तब 'सयोगकेवली' कहते हैं। इसमें भी कुछ योगोंकी प्रवृत्ति है, इसलिये 'अयोगकेवली' चौदहवाँ गुणस्थान है। इसमें योगों की प्रवृत्ति मिट कर आत्मा अवस्थित हो जाती है तब चौरासी लाख उत्तरगुणोंकी पूर्णता कही जाती है। ऐसे गुणस्थानोंकी अपेक्षा उत्तरगुणोंकी प्रवृत्ति विचारने योग्य है। ये बाह्य अपेक्षा भेद हैं, अंतरंग अपेक्षा विचार करें तो संख्यात, असंख्यात, अनन्तभेद होते हैं, इसप्रकार जानना चाहिये ।। १२० ।।
आगे भेदोंके विकल्पसे रहित होकर ध्यान करनेका उपदेश करते हैं:
झायहि धम्मं सुक्कं अट्ट रउद्दं च झाण मुत्तूण । रुद्दट्ट झाइयाइं इमेण जीवेण चिरकालं ।। १२१ ।।
ध्याय धर्म्यं शुक्लं आर्त्तं रौद्रं च ध्यानं मुक्त्वा । रौद्रार्ते ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम् ।। १२१ । ।
अर्थ:-- हे मुनि ! तू आ रौद्र ध्यानको छोड़ और धर्म शुक्लध्यान है उन्हें ही कर, क्योंकि रौद्र और आर्त्तध्यान तो इस जीवने अनादिकालसे बहुत समय तक किये हैं।
ध्या धर्म्य तेमज शुक्लने, तक्व आर्त तेम ज रौद्रने; चिरकाळ ध्यायां आर्त तेम ज रौद्र ध्यानो आ जीवे । १२१ ।
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