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[अष्टपाहुड तीसरा 'आस्रवतत्त्व' है वह जीव-पुद्गल के संयोगजनित भाव हैं, इनमें अनादि कर्म सम्बन्ध से जीवके भाव (भाव-आस्रव ) तो राग-द्वेष-मोह हैं और अजीव पुद्गलके भावकर्म के उदयरूप मिथ्यात्व, अविरत, कषाय और योग द्रव्यास्रव हैं। इनकी भावना करना कि ये (असद्भूत व्यवहारनय अपेक्षा) मुझे होते हैं, [अशुद्ध निश्चयनयसे ] रागद्वेषमोह भाव मेरे हैं,
का बन्ध होता है, उससे संसार होता है इसलिये इनका कर्त्ता न होना---[ स्वमें अपने ज्ञाता रहना]।
चौथा ‘बन्धतत्त्व' है वह मैं रागमोहद्वेषरूप परिणमन करता हूँ वह तो मेरी चेतनाका विभाव है, इससे जो बँधते हैं वे पुद्गल हैं, कर्म पुद्गल हैं, कर्म पुद्गल ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार होकर बँधता है, वे स्वभाव-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप चारप्रकार होकर बँधते हैं, वे मेरे विभाव तथा पुद्गल कर्म सब हेय हैं, संसार के कारण हैं, मुझे रागद्वेष मोहरूप नहीं होना है, इसप्रकार भावना करना।
पाँचवाँ 'संवरतत्त्व' है वह राग-द्वेष-मोहरूप जीवके विभाव हैं, उनका न होना और दर्शन-ज्ञानरूप चेतनाभाव स्थिर होना यह ‘संवर' है, वह अपना भाव है और इसी से पुद्गल कर्मजनित भ्रमण मिटता है।
इसप्रकार इन पाँच तत्त्वोंकी भावना करने में आत्मतत्त्वकी भावना प्रधान है, उससे कर्मकी निर्जरा होकर मोक्ष होता है। आत्माका भाव अनुक्रम से शुद्ध होना यह तो 'निर्जरातत्त्व' हुआ और सब कर्मोंका अभाव होना यह 'मोक्षतत्त्व' हुआ।
इसप्रकार सात तत्त्वोंकी भावना करना। इसीलिये आत्मतत्त्वका विश्लेषण किया कि आत्मतत्त्व कैसा है---धर्म, अर्थ, काम इस त्रिवर्गका अभाव करता है। इसकी भावना से त्रिवर्ग से भिन्न चौथा पुरुषार्थ 'मोक्ष' है वह होता है। यह आत्मा ज्ञान-दर्शनमयी चेतनास्वरूप अनादिनिधन है, इसका आदि भी नहीं और निधन (नाश) भी नहीं है। ‘भावना' नाम बारबार अभ्यास करने, चिन्तन करने का है वह मन-वचन-कायसे आप करना तथा दूसरे को कराना और करने वाले को भला जानना---ऐसे त्रिकरण शुद्ध करके भावना करना। माया-निदान शल्य नहीं रखना, ख्याति, लाभ, पूजाका आशय न रखना। इसप्रकार से तत्त्व की भावना करने से भाव शुद्ध होते हैं।
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