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[ अष्टपाहुड आगे कहते हैं कि भाव बिगड़ने के कारण चार संज्ञा हैं, उनके संसार-भ्रमण होता है, यह दिखाते हैं:---
आहारभयपरिग्गहमेहुण सण्णाहि मोहिओ सि तुमं। भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो।। ११२।।
आहारभयपरिग्रह मैथुन संज्ञाभिः मोहितः असि त्वम्। भ्रमितः संसारवने अनादिकालं अनात्मवशः।। ११२ ।।
अर्थ:--हे मुने! तूने आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, इन चार संज्ञाओंसे मोहित होकर अनादिकालसे पराधीन होकर संसाररूप वनमें भ्रमण किया।
भावार्थ:-- ‘संज्ञा' नाम वांछाके जागते रहने (अर्थात् बने रहने) का है, सो आहारकी वांछा होना, भय होना, मैथुनकी वांछा होना और परिग्रह की वांछा प्राणी के निरन्तर बनी रहती है, यह जन्मान्तर से चली जाती है, जन्म लेते ही तत्काल प्रगट होती है। इसी के निमित्त से कर्मोंका बंध कर संसारवन में भ्रमण करता है, इसलिये मुनियोंको यह उपदेश है कि अब इन संज्ञाओंका अभाव करो।। ११२।।
आगे कहते हैं कि बाह्य उत्तरगुण की प्रवृत्ति भी भाव शुद्ध करके करना:---
बाहिरसयणत्तावणतरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि। पालहि भावविशुद्धो पूयालाहं ण ईहंतो।।११३।।
बहिः शयनातापनतरुमूलादीन् उत्तरगुणान्। पालय भावविशुद्धः पूजा लाभं न ईहमानः।। ११३।।
अर्थ:--हे मुनिवर! तू भावसे विशुद्ध होकर पूजा-लाभादिकको नहीं चाहते हुए, बाह्यशयन, आतापन, वृक्षमूलयोग धारण करना, इत्यादि उत्तरगुणोंका पालन कर।
आहार-भय-परिग्रह-मिथुन संज्ञा थकी मोहितपणे तुं परवशे भटकयो अनादि काळथी भवकानने। ११२ ।
तरूमूल , आतापन, बहिः शयनादि उत्तरगुणने तुं शुद्ध भावे पाळ, पूजालाभथी निःस्पृहपणे। ११३ ।
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