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/ अष्टपाहुड
इय णाऊण खमागुण खमेहि तिविहेण सयल जीवाणं। चिरसंचियकोहसिहिं वरखमसलिलेण सिंचेह।। १०९।।
इति ज्ञात्वा क्षमागुण! क्षमस्व त्रिविन सकलजीवान्। चिरसंचित क्रोध शिखिनं वर क्षमासलिलेन सिंच।। १०९ ।।
अर्थ:--हे क्षमागुण मुने! [ जिसके क्षमागुण है ऐसे मुनिका संबोधन है ] इति अर्थात् पूर्वोत्त प्रकार क्षमागुण को जान और सब जीवों पर मन-वचन-काय से क्षमा कर तथा बहुत कालसे संचित क्रोधरूपी ग्निको शमारूप जलसे सींच अर्थात् शमन कर।
भावार्थ:--क्रोधरूपी अग्नि पुरुष के भले गुणोंको दग्ध करने वाली है और परजीवोंका घात करने वाली है, इसलिये इसको क्षमारूप जलसे बुझाना , अन्य प्रकार यह बुझती नहीं है और क्षमा गुण सब गुणोंमें प्रधान है। इसलिये यह उपदेश है कि क्रोध को छोड़कर क्षमा ग्रहण करना।। १०९।।
आगे दीक्षाकालादिककी भावना का उपदेश करते हैं:---
दिक्खाकालाईयं भावहि अवियारदसणविसुद्धो। उत्तम बोहिणिमित्तं असारसाराणि मुणिऊण।।११०।।
दीक्षाकालादिकं भावय अविकारदर्शनविशुद्धः। उत्तमबोधिनिमित्तं असारसाराणि ज्ञात्वा।। ११०।।
अर्थ:--हे मुने! तू संसारको असार जानकर उत्तमबोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी प्राप्तिके निमित्त अविकार अर्थात् अतिचाररहित निर्मल सम्यग्दर्शन सहित होकर दीक्षाकाल आदिककी भावना कर।
भावार्थ:--दीक्षा लेते हैं तब संसार, (शरीर) भोगको (विशेषतया) असार जानकर अत्यंत वैराग्य उत्पन्न होता है, वैसे ही उसके आदि शब्दसे रोगोत्पत्ति, मरणाकालादिक जानना।
तेथी क्षमागुणधर! क्षमा कर क्वव सौने त्रण विधे; उत्तम क्षमा जळ सींच तुं चिरकाळना क्रोधाग्निने। १०९ ।
सुविशुद्धदर्शनधरपणे वरबोधि केरा हेतु चिंतव तुं दीक्षाकाळ-आदिक, जाणी सार-असारने। ११०।
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