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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates भावपाहुड] /२१५ यथा प्रस्तर: न भिद्यते परिस्थितः दीर्घकाल मुदकेन। तथा साधुरपि न भिद्यते उपसर्ग परीषहेभ्यः।। ९५ ।। अर्थ:--जैसे पाषाण जलमें बहुत कालतक रहने पर भी भेदको प्राप्त नहीं होता है वैसे ही साधु उपसर्ग - परीषहोंसे नहीं भिदता है। भावार्थ:--पाषाण ऐसा कठोर होता है कि यदि वह जलमें बहुत समय तक रहे तो भी उसमें जल प्रवेश नहीं करता है, वैसे ही साधुके परिणाम भी ऐसे दृढ़ होते हैं कि--उपसर्ग - परीषह आने पर भी संयमके परिणाम से च्युत नहीं होता है और पहिले कहा जो संयम का घात जैसे न हो वैसे परीषह सहे। यदि कदाचित् संयमका घात होता जाने तो जैसे घात न हो वैसे करे।। ९५।। आगे, परीषह आने पर भाव शुद्ध रहे ऐसा उपाय कहते हैं:-- भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि। भावरहिएण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ।। ९६ ।। भावय अनप्रेक्षाः अपरा: पंचविंशतिभावना: भावय। भावरहितेन किं पुनः बाह्यलिंगेन कर्त्तव्यम।। ९६ ।। अर्थ:--हे मुने! तू अनुप्रेक्षा अर्थात् अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा हैं उनकी भावना कर और अपर अर्थात् अन्य पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावना कही है उनकी भावना कर, भावरहित जो बाह्यलिंग है उससे क्या कर्त्तव्य है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। भावार्थ:--कष्ट आने पर बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करना योग्य है। इनके नाम ये हैं---१ अनित्य, २ अशरण, ३ संसार, ४ एकत्व, ५ अन्यत्व, ६ अशुचित्व, ७ आस्रव, ८ संवर, ९ निर्जरा, १० लोक, ११ बोधिदुर्लभ, १२ धर्म----इनका और पच्चत्स भावनाओंका भाना बड़ा उपाय है। इनका बारम्बार विन्तन करने से कष्ट में परिणाम बिगड़ते नहीं हैं. इसलिये यह उपदेश है।। ९६ ।। आगे फिर भाव शुद्ध रखने को ज्ञानका अभ्यास करते हैं:--- --------------------- तुं भाव द्वादश भावना, वळी भावना पच्चीशने; शुं छे प्रयोजन भावविरहित बाह्यलिंग थकी अरे! ९६ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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