________________
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
भावपाहुड]
[ २१३
आगे फिर कहते हैं:--
तित्थयर भासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म। भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्ध भावेण सुयणाणं ।। ९२।। तीर्थंकरभाषितार्थं गणधरदेवैः ग्रथितं सम्यक्। भावय अनुदिनं अतुलं विशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम्।। ९२।।
अर्थ:--हे मुने! तू जिस श्रुतज्ञानको तीर्थंकर भगवानने कहा और गणधर देवोंने गूंथा अर्थात् शास्त्ररूप रचना की उसकी सम्यक् प्रकार भाव शुद्ध कर निरन्तर भावना कर। कैसा है वह श्रुतज्ञान ? अतुल है, इसके बराबर अन्य मतका कहा हुआ श्रुतज्ञान नहीं है।। ९२ ।।
ऐसा करने से क्या होता है सो कहते हैं:---
'पीऊण णाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का। होंति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा।। ९३।।
पीत्वा ज्ञानसलिलं निर्मथ्यतृषादाहशोषोन्मुक्ता। भवंति शिवालयवासिनः त्रिभुवन चूडामणयः सिद्धाः।। ९३।।
अर्थ:--पूर्वोक्त प्रकार भाव शुद्ध करने पर ज्ञानरूप जलको पीकर सिद्ध होते हैं। कैसे हैं सिद्ध ? निर्मथ्य अर्थात् मथा न जावे ऐसे तृषादाह शोष से रहित हैं, इस प्रकार सिद्ध होते है; ज्ञानरूप जल पीने का यह फल है। सिद्ध शिवालय अर्थात् मुक्तिरूप महलमें रहनेवाले हैं, लोकके शिखर पर जिनका वास है। इसीलिये कैसे हैं ? तीन भुवनके चुड़ामणि हैं, मुकुटमणि हैं तथा तीन भुवन में ऐसा सुख नहीं है, ऐसे परमानंद अविनाशी सुखको वे भोगते हैं। इसप्रकार वे तीन भुवन के मुकुटमणि हैं।
१ पाठान्तर :- पाऊण। २ पाठान्तर :- प्राप्य।
तीर्थेशभाषित-अर्थमय, गणधर सुविरचित जेह छे, प्रतिदिन तुं भाव विशुद्धभावे ते अतुल श्रुतज्ञानने। ९२ ।
जीव ज्ञानजळ पी, तीव्रतृष्णादाहशोष थकी छूटी, शिवधामवासी सिद्ध थाय-त्रिलोकना चूडामणि। ९३।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com