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________________ २०२] Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायव्वं । असुहं च अट्टरउद्दं सुह धम्मं जिणवरिंदेहिं ।। ७६ ।। भावः त्रिविधप्रकारः शुभोऽशुभ: शुद्ध एव ज्ञातव्यः । अशुभश्च आर्त्तरौद्रं शुभः धर्म्यं जिनवरेन्द्रैः।। ७६ ।। अर्थ:--जिनवरदेवने भाव तीन प्रकारका कहा हैआर्त्त और रौद्र ये अशुभ ध्यान है तथा धर्मध्यान शुभ है ।। ७६ ।। -१ शुभ, २ अशुभ और ३ शुद्ध । सुद्धं सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं । इदि जिणवरेहिं भणियं जं सेयं तं समायरह ।। ७७ ।। शुद्धः शुद्धस्वभावः आत्मा आत्मनि सः च ज्ञातव्यः । इति जिनवरैः भणितं यः श्रेयान् तं समाचर ।। ७७ ।। अर्थः--शुद्ध है वह अपना शुद्धस्वभाव अपने ही में इसप्रकार जिनवरदेवने कहा है, वह जानकर इनमें जो कल्याणरूप हो उसको अंगीकार करो । भावार्थः——भगवानने भाव तीन प्रकारके कहे हैं -१ शुभ, २ अशुभ और ३ शुद्ध । अशुभ तो आर्त्त व रोद्र ध्यान है वे तो अति मलिन हैं, त्याज्य ही हैं। धर्मध्यान शुभ है, इसप्रकार यह कथंचित् उपादेय है इससे मंदकषायरूप विशुद्धि भावकी प्राप्ति है। शुद्ध भाव है वह सर्वथा उपादेय है क्योंकि यह आत्मा का स्वरूप ही है । इसप्रकार हेय जानकर त्याग और ग्रहण करना चाहिये, इसीलिये ऐसा कहा है कि जो कल्याणकारी हो वह अंगीकार करना यह जिनदेवका उपदेश है ।। ७७ ।। आगे कहते कि जिनशासनका इसप्रकार माहात्म्य है : [ अष्टपाहुड शुभ, अशुभ तेमज शुद्ध-त्रण विध भाव जिनप्रज्ञप्त छे; त्यां ‘अशुभ' ‘आरत-रौद्र ने 'शुभ' धर्म्य छे - भाख्यं जिने । ७६ । आत्मा विशुद्ध स्वभाव आत्म महीं रहे ते 'शुद्ध' छे; - आ जिनवरे भाखेल छे; जे श्रेय, आचर तेहने । ७७ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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