________________
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
१९८]
। अष्टपाहुड
अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण। पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण।।६९।। अयशसां भाजनेन च किं ते नग्नेन पापमलिनेन। पैशून्यहास मत्सरमायाबहुलेन श्रमणेन।। ६९।।
अर्थ:--हे मुने! तेरे ऐसे नग्नपने से तथा मुनिपनेसे क्या साध्य है ? कैसा है--पैशून्य अर्थात् दूसरे का दोष कहनेका स्वभाव, हास्य अर्थात् दूसरेकी हँसी करना, मत्सर अर्थात् अपने बराबरवालेसे ईर्ष्या रखकर दूसरेको नीचा करनेकी बुद्धि , माया अर्थात् कुटिल परिणाम , ये भाव उसमें प्रचुरता से पाये जाते हैं, इसलिये पापसे मलिन है और अयश अर्थात् अपकीर्तिका भाजन
भावार्थ:--पैशून्य आदि पापोंसे मलिन इसप्रकार नग्नस्वरूप मुनिपने से क्या साध्य है ? उलटा अपकीर्तिका भाजन होकर व्यवहारधर्मकी हँसी करानेवाला होता है, इसलिये भावलिंगी होना योग्य है।। ६९।।
आगे इसप्रकार भावलिंगी होनेका उपदेश करते हैं:---
पयडहिं जिणवरलिंगं अभिंतरभावदोसपरिसुद्धो। भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियइ।।७०।।
प्रकट्य जिनवरलिंगं अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्धः। भावमलेन च जीव: बाह्यसंगे मलिनयति।। ७०।।
अर्थ:--हे आत्मन् तू अभ्यन्तर भावदोषोंसे अत्यन्त शुद्ध ऐसा जिनवर लिंग अर्थात् बाह्य निर्गन्थ लिंग प्रगट कर, भावशुद्धिके बिना द्रव्यलिंग बिगड़ जायेगा, क्योंकि भावमलिन जीव बाह्य परिग्रह में मलिन होता है।
भावार्थ:--यदि भाव शृद्धकर द्रव्यलिंग धारणकरे तो भ्रष्ट न हो और भाव मलिन
शुं साध्य तारे अयशभाजन पापयुत नग्नत्वथी -बहु हास्य-मत्सर-पिशुनता-मायाभर्या श्रमणत्वथी ? ६९ ।
थई शुद्ध आंतर-भाव मळविण, प्रगट कर जिनलिंगने; जी भावमळथी मलिन बाहिर-संगमा मलिनित बने। ७०।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com