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भावपाहुड
[१८१
अण्णं च वसिट्ठमुणी पत्तो दुक्खं णियाणदोसेण। सो णत्थि वासठाणो जत्थ ण दुरुढुल्लिओ जीवो।। ४६ ।।
अन्यश्च वसिष्ठमुनिः प्राप्तः दुखं निदानदोषेण। तन्नास्ति वासस्थानं यत्र न भ्रमितः जीव!।। ४६ ।।।
अर्थ:--अन्य और एक विशिष्ठ नामक मुनि निदान के दोषसे दुःखको प्राप्त हुआ, इसलिये लोकमें ऐसा वासस्थान नहीं है जिसमें यह जीव-मरणसहित भ्रमणको प्राप्त नहीं हुआ।
भावार्थ:--विशिष्ठ मुनिकी कथा ऐसे है---गंगा और गंधवती दोनों नदियोंका जहाँ संगम हुआ है वहाँ जठरकौशिक नामकी तापसीकी पल्ली थी। वहाँ एक वशिष्ठ नामका तपस्वी पंचाग्निसे तप करता था। वहाँ गुणभद्र वीरभद्र नामके दो चारण मुनि आये। उस वरिष्ठ तपस्वी को कहा--जो तू अज्ञान तप करता है इसमें जीवोंकी हिंसा होती है, तब तपस्वी ने प्रत्यक्ष हिंसा देख और विरक्त होकर जैनदीक्षा ले ली, मासोपवाससहित आतापन योग स्थापित किया, उस तप के माहात्म्यसे सात व्यन्तर देवोंने आकर कहा, हमको आज्ञा दो सो ही करें, तब वशिष्ठने कहा, 'अभी तो मेरे कुछ प्रयोजन नहीं है, जन्मांतरमें तुम्हें याद करूँगा'। फिर वशिष्ठने मथुरापुरी में आकर मासोपवाससहित आतापन योग स्थापित किया।
उसको मथुरापुरी के राजा उग्रसेनने देखकर भक्तिवश यह विचार किया कि मैं इनको पारणा कराऊँगा। नगर में घोषणा करा दी की इन मुनिको और कोई आहार न दे। पीछे पारणा के दिन नगर में आये, वहाँ अग्निका उपद्रव देखकर अंतराय जानकर वापिस चले गये। फिर मासोपवास किया, फिर पारणा दिन नगर में आये तब हाथी का क्षोभदेख अंतराय जानकर वापिस चले गये। फिर मासोपवास किया, फिर पीछे पारणाके दिन फिर नगर में आये। तब राजा जरासिंधका पत्र आया, उसके निमित्त से राजाका चित्त व्यग्र था इसलिये मुनिको पडगाहा नहीं, तब अंतराय मान वापिस वनमें जाते हुए लोगोंके वचन सुने-राजा मनिको आहार दे नहीं और अन्य देने वालों को मना कर दिया; ऐसे वचन सन राजापर क्रोध कर निदान किया कि--इस राजाका पुत्र होकर राजाका निग्रह कर मैं राज करूँ, इस तपका मेरे यह फल हो, इसप्रकार निदान से मरा।
बीजाय साधु वसिष्ठ पाम्या दुःखने निदानथी; ओवू नथी को स्थान के जे स्थान जीव भम्यो नथी। ४६।
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