SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates भावपाहुड] [१६१ असुईबीहत्थेहि य कलिमलबहुलाहि गब्भवसहीहि। वसिओ सि चिरं कालं अणेयजणणीय मुणिवयर।।१७।। अशुचिबीभत्सासु य कलिमलबहुलासु गर्भवसतिषु। उषितोऽसि चिरं कालं अनेकजननीनां मुनिप्रवर!।।१७।। अर्थ:--हे मुनिप्रवर! तू कुदेवयोनि से चयकर अनेक माताओं की गर्भ की वस्तीमें बहुकाल रहा। कैसे है वह वस्ती ? अशुचि अर्थात् अपवित्र है, वीभत्स (घिनवानी) है और उसमें कलिमल बहुत है अर्थात् पापरूप मलिन मल की अधिकता है। भावार्थ:--यहाँ ‘मुनिप्रवर' ऐसा सम्बोधन है सो प्रधानरूप से मुनियोंको उपदेश है। जो मुनिपद लेकर मनियोंमें प्रधान कहलावें और शुद्धात्मरूप निश्चयचारित्रके सन्मुख न हो, उसको कहते हैं कि बाह्य द्रव्यलिंग तो बहुतबार धारणकर चार गतियोंमें ही भ्रमण किया, देव भी हुआ तो वहाँ से चयकर इसप्रकारके मलिन गर्भवासमें आया, वहाँ भी बहुतबार रहा।। १७ ।। आगे फिर कहते हैं कि इसप्रकारके गर्भवास से निकलकर जन्म लेकर माताओं का दूध पिया:-- पीओ सि थणच्छीरं अणंतजम्मंतराइ जणणीणं। अण्णाण्णाण महाजस सायरसलिलादु अहिययरं।। १८ ।। पीप्तोऽसि स्तनक्षीरं अनंतजन्मांतराणि जननीनाम्। अन्यासामन्यासां महायश! सागरसलिलात् अधिकतरम्।।१८।। अर्थ:-- हे महाशय! उस पूर्वोक्त गर्भवास में अन्य-अन्य जन्ममें अन्य-अन्य माता के स्तन दूध तूने समूद्रके जलसे भी अतिशयकर अधिक पिया है। हे मुनिप्रवर! तुं चिर वस्यो बहु जननीना गर्मोपणे, निकृष्टमळभरपूर, अशूचि, बीभत्स गर्भाशय विषे। १७। जन्मो अनंत विषे अरे! जननी अनेरी अनेरीनं स्तनदूध तें पीधु महायश! उदधिजळथी अति घणुं। १८ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy