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[अष्टपाहुड
आगे उपदेश करते हैं कि--भावको परमार्थ जानकर इसीको अंगीकार करो:--
जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण। पंपिंय सिवपुरिपंथं जिणउवइटुं पयत्तेण।।६।।
जानीहि भावं प्रथमं किं ते लिंगेन भावरहितेन। पथिक शिवपुरी पंथाः जिनोपदिष्टः प्रयत्नेन।।६।।
अर्थ:--हे शिवपुरी के पथिक! प्रथम भावको जान, भाव रहित लिंगसे तुझे क्या प्रयोजन है ? शिवपुरीका पंथ जिनभगवंतोंने प्रयत्न साध्य कहा है।
भावार्थ:--मोक्षमार्ग जिनवर देवने सम्यग्दर्शन - ज्ञान -चारित्र आत्मभाव स्वरूप परमार्थसे कहा है, इसलिये इसीको परमार्थ जानकर सर्व उद्यमसे अंगीकार करो, केवल द्रव्यमात्र लिंग से क्या साध्य है ? इसप्रकार उपदेश है।। ६।।
आगे कहते हैं कि द्रव्यलिंग आदि तुने बहुत धारण किये, परन्तु उससे कुछ भी सिद्धि नहीं हुई:---
भावरहिएण सपुरिस अणाइकालं अणंतसंसारे। गहिउज्झियाइं वहुसो बाहिरणिग्गंथरूवाइं।।७।।
भावरहितेन सत्पुरुष! अनादिकालं अनंतसंसारे। गृहीतोज्झितानि बहुश: बाह्यनिग्रंथ रूपाणि।।७।।
अर्थ:--हे सत्पुरुष! अनादिकाल से लगाकर इस अनन्त संसार में तुने भावरहित निर्ग्रन्थ रूप बहुत बार ग्रहण किये और छोड़े।
छे भाव परथम, भावविरहित लिंगथी शं कार्य छे ? हे पथिक! शिवनगरी तणो पथ यत्नप्राप्य कह्यो जिने। ६।
सत्पुरुष! काळ अनादिथी निःसीम आ संसारमां, बहु वार भाव विना बहिर्निग्रंथरूप ग्रह्यां-तज्यां। ७।
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