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[अष्टपाहुड आगे कहते हैं क बाह्यद्रव्य निमित्तमात्र है इसका 'अभाव' जीवके भाव की विशुद्धताका निमित्त जान बाह्यद्रव्य का त्याग करते हैं:--
भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। बाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स।।३।।
भावविशुद्धिनिमित्तं बाह्यग्रंथस्य क्रियते त्यागः। बाह्यत्यागः विफल: अभ्यन्तरग्रंथयुक्तस्थ।।३।।
अर्थ:--बाह्य परिग्रह त्याग भावोंकी विशुद्धिके लिये किया जाता है, परन्तु अभ्यन्तर परिग्रह जो रागागिक हैं, उनसे युक्त बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है।
भावार्थ:--अन्तरंग भाव बिना बाह्य त्यागादिककी प्रवृत्ति निष्फल है, यह प्रसिद्ध है।।
३।।
आगे कहते हैं कि करोड़ों भवोंमें तप करे तो भी भाव बिना सिद्धि नहीं है:--
भावरहिओ ण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ। जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो।।४।।
भावरहितः न सिद्धयति यद्यपि तपश्चरति कोटिकोटी। जन्मान्तराणि बहुश: लंबितहस्तः गलितवस्त्रः।।४।।
अर्थ:--यदि कई जन्मान्तरों तक कोडाकोडि संख्या काल तक हाथ लम्बे लटकाकर, वस्त्रादिकका त्याग करके तपश्चरण करे, तो भी भावरहित को सिद्धि नहीं होती है।
रे! भावशुद्धिनिमित्त बाहिर-ग्रंथ त्याग कराय छे; छे विफळ बाहिर-त्याग आंतर-ग्रंथथी संयुक्तने। ३।
छो कोटिकोटि भवो विषे निर्वस्त्र लंबितकर रही, पुष्कळ करे तप, तोय भावविहीनने सिद्धि नहीं। ४ ।
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