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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १५०] । अष्टपाहुड भावार्थ:--आचार्य ‘भावपाहुड' ग्रन्थ बनाते हैं; वह भावप्रधान पंचपरमेष्ठी हैं, उनको आदि में नमस्कार युक्त है, क्योंकि जिनवरेन्द्र तो इसप्रकार हैं---जिन अर्थात् गुण श्रेणी निर्जरा युक्त इसप्रकार के अविरत सम्यग्दृष्टि आदिको में वर अर्थात् श्रेष्ठ ऐसे गणधरादिकोंमें इन्द्र तीर्थंकर परमदेव हैं, वह गुणश्रेणी निर्जरा शुभभाव से ही होती है। वे तीर्थंकरभावके फलको प्राप्त हुए, घातिकर्मका नाश कर केवलज्ञानको प्राप्त किया, उसीप्रकार सर्व कर्मोंका नाश कर, परमशुद्धभावको प्राप्त कर सिद्ध हुए, आचार्य, उपाध्याय शुद्धभावके एकदेशको प्राप्त कर पूर्णताको स्वयं साधते हैं तथा अन्यको शुद्धभावकी दीक्षा-शिक्षा देते हैं, इसीप्रकार साधु हैं वे भी शुद्धभावको स्वयं साधते हैं और शुद्धभावकी महिमा से तीनलोकके प्राणियों द्वारा पूजने योग्य वंदने योग्य हैं, इसलिये 'भावप्राभृत' के आदिमें इनको नमस्कार युक्त है। मस्तक द्वारा नमस्कार करनेमें सब अंग आ गये क्योंकि मस्तक सब अंगों में उत्तम है। स्वयं नमस्कार किया तब अपने भावपूर्वक ही हुआ, तब ‘मन-वचन-काय' तीनों ही आ गये, इसप्रकार जानना चाहिये ।।१।। आगे कहते हैं कि लिंग द्रव्य-भावके भेद से दो प्रकार का है. इनमें भावलिंग परमार्थ भावो हि पढमलिंग ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं। भावो कारण भूदो गुणदोसाणं जिणा 'बेन्ति।।२।। भावः हि प्रथमलिंगं न द्रव्यलिंग च जानीहि परमार्थम्। भावो कारणभूतः गुणदोषाणां जिना `ब्रुवन्ति।।२।। अर्थ:--भाव प्रथम लिंग है, इसलिये हे भव्य ! तू द्रव्यलिंग है उसको परमार्थरूप मत जान, क्योंकि गुण और दोषोंका कारणभूत भाव ही है, इसप्रकार जिन भगवान कहते हैं। १ पाठान्तरः --विन्ति। २ पाठान्तरः --विदन्ति। छे भाव परथम लिंग, द्रवमय लिंग नहि परमार्थ छे; गुणदोषनुं कारण कह्यो छे भावने श्री जिनवरे। २। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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