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[ अष्टपाहुड
अर्थ:--इसप्रकार पूर्वोक्त प्रकार से आयतन अर्थात् दीक्षा का स्थान जो निर्ग्रथ मुनि उसके गुण जितने हैं उनसे पज्जता अर्थात् परिपूर्ण अन्य भी जो बहुतसे गुण दीक्षामें होने चाहिये वे गुण जिसमें हों इसप्रकार की प्रवज्या जिनमार्ग में प्रसिद्ध है । उसीप्रकार संक्षेपसे कही है। कैसा है जिनमार्ग ? जिसमें सम्यक्त्व विशुद्ध है, जिसमें अतीचार रहित सम्यक्त्व पाया जाता है और निर्ग्रथरूप है अर्थात् जिसमें बाह्य अंतरंग - परिग्रह नहीं है।
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भावार्थ:--इसप्रकार पूर्वोक्त प्रवज्या निर्मल सम्यक्त्वसहित निर्ग्रथरूप जिनमार्गमें कही है। अन्य नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, मीमांसक, पातंजलि और बौद्ध आदिक मतमें नहीं है। कालदोषसे भ्रष्ट हो गये और जैन कहलाते हैं इसप्रकारके श्वेताम्बरादिकोंमें भी नहीं है ।। ५९ ।।
इसप्रकार प्रवज्याके स्वरूपका वर्णन किया ।
आगे बोधपाहुडको संकोचते हुए आचार्य कहते हैं:
रुवत्थं सुद्धत्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । भव्वजणबोहणत्थं छक्काय हियंकरं उत्तं ।। ६० ।।
रूपस्थं शुद्धयर्थं जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितम्। भव्यजन बोधनार्थं षट्कायहितंकरं उक्तम् ।। ६० ।।
अर्थ:-- जिसमें अंतरंग भावरूप अर्थ शुद्ध है और ऐसा ही रूपस्थ अर्थात् बाह्यस्वरूप मोक्षमार्ग जैसा जिनमार्गमें जिनदेवने कहा है वैसा छहकायके जीवोंका हित करने वाला मार्ग भव्यजीवोंके संबोधनके लिये कहा है । इसप्रकार आचार्य ने अपना अभिप्राय प्रकट किया है।
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भावार्थ:--इस बोधपाहुड में आयतन आदि से लेकर प्रवज्यापर्यन्त ग्यारह स्थल कहे । इनका बाह्य–अन्तरंग स्वरूप जैसे जिनदेवने जिनमार्गमें कहा वैसे ही कहा है। कैसा है यह छहकायके जीवोंका हित करने वाला है, जिसमें एकेन्द्रिय आदि असैनी पर्यन्त जीवोंकी रक्षाका अधिकार है, सैनी पंचेन्द्रिय जीवों की रक्षा भी कराता है
रूप
रूपस्थ सुविशुद्धार्थ वर्णन जिनपथे ज्यम जिन कर्यु, त्यम भग्रजनबोधन अरथ षट्कायहितकर अहीं कह्युं । ६० ।
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