________________
___Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
[१३५
बोधपाहुड]
आगे फिर कहते हैं:--
णिग्गंथा णिस्संगा णिम्माणासा अराय णिद्दोसा। णिम्मम णिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ४९ ।।
निर्ग्रथा निःसंगा निर्मानाशा अरागा निर्वृषा। निर्ममा निरहंकारा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता।। ४९।।
अर्थ:--कैसी है प्रवज्या ? निर्ग्रथअवरूप है, परिग्रह से रहित है, निःसंग अर्थात् जिसमें स्त्री परद्रव्यका संग-मिलाप नहीं है, जिसमें निर्माना अर्थात मान कषाय भी नहीं नहीं है. मदरहित है, जिसमें आशा नहीं है, संसारभोग की आशारहित है, जिसमें अराग अर्थात् राग का अभाव है, संसार-देह-भोगों से प्रीति नहीं है, निर्देषा अर्थात् किसी से द्वेष नहीं है, निर्ममा अर्थात् किसी से ममत्व भाव नहीं है, निरहंकारा अर्थात् अहंकार रहित है, जो कुछ कर्मका उदय होता है वही होता है---इसप्रकार जानने से परद्रव्यमें कर्तृत्वका अहंकार नहीं रहता है और अपने स्वरूपका ही उसमें साधन है, इसप्रकार प्रवज्या कही है।
भावार्थ:--अन्यमती भेष पहिनकर उसी मात्रको दीक्षा मानते हैं वह दीक्षा नहीं है, जैन दीक्षा इसप्रकार कही है।। ४९ ।।
आगे फिर कहते हैं:--
णिण्णेहा णिल्लोहा णिम्मोहा णिव्वियार णिक्कलुसा। णिब्भय णिरासभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया।।५०।।
निग्रंथ ने निःसंग, निर्मानाश, निरहंकार छे, निर्मम, अराग, अद्वेष छे, -दीक्षा कही आवी जिने। ४९ ।
निः स्नेह, निर्भय, निर्विकार, अकलुष ने निर्मोह छे, आशारहित, निर्लोभ छे, -दीक्षा कही आवी जिने। ५०।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com