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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १३२] [अष्टपाहुड जो मुनिवृषभ अर्थात् मुनियोंमें प्रधान हैं उनके कहे हुए शून्यगृहादिक तथा तीर्थ, नाम मंत्र, स्थापनरूप मूर्ति और उनका आलय - मन्दिर, पुस्तक और अकृत्रिम जिनमन्दिर उनको ‘णिइच्छति' अर्थात् निश्चयसे इष्ट करते हैं। सूने घर आदि में रहते हैं और तीर्थ आदि का ध्यान चितवन करते हैं तथा दूसरोंको वहाँ दीक्षा देते हैं। यहाँ ‘णिइच्छति' पाठान्तर छंति' इसप्रकार भी है उसका कालोक्ति द्वारा तो इसप्रकार अर्थ होता है कि 'जो क्या इष्ट नहीं करते हैं ? अर्थात् करते ही हैं।' एक टिप्पणी में ऐसा अर्थ किया है कि--ऐसे शून्यगृहादिक तथा तीर्थादिकको स्ववशासक्त अर्थात् स्वेच्छाचारी भ्रष्टाचारियों द्वारा आसक्त हो (युक्त हो) तो वे मुनिप्रधान इष्ट न करें, वहाँ न रहें। कैसे हैं वे मुनि प्रधान ? पाँच महाव्रत संयुक्त हैं, पाँच इन्द्रियोंको भले प्रकार जीतने वाले हैं, निरपेक्ष हैं - किसी प्रकारकी वांच्छासे मुनि नहीं हुए हैं, स्वाध्याय और ध्यानयुक्त हैं, कई तो शास्त्र पढ़ते- पढ़ाते हैं, कई धर्म - शुक्लध्यान करते हैं। भावार्थ:--यहाँ दीक्षा योग्य स्थान तथा दीक्षासहित दीक्षा देनेवाले मुनिका तथा उनके चिंतनयोग्य व्यवहार स्वरूप कहा है ।। ४२ - ४३ - ४४।। [११] आगे प्रवज्याका स्वरूप कहते हैं:-- गिहगंथमोहमुक्का बावीसपरीसहा जियकषाया। पावारंभविमुक्का पव्वज्जा एरिसा भणिया।।४५।। गृहग्रंथमोहमुक्ता द्वविंशतिपरीषहा जितकषाया। पापारंभविमुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता।। ४५।। अर्थ:--गृह (घर) और ग्रंथ (परिग्रह) इन दोनोंसे मुनि ममत्व, इष्ट -अनिष्ट बुद्धिसे रहित ही है, जिसमें बाईस परीषहोंका सहना होता है, कषायोंको जीतते हैं और पापरूप आरंभ से रहित हैं---इसप्रकार प्रवज्या जिनेश्वरदेवने कही है। गृह-ग्रंथ-मोहविमुक्त छे, परिषहजयी, अकषाय छे, छे मुक्त पापारंभथी, -दीक्षा कही आवी जिने। ४५ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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