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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १२८] [अष्टपाहुड अर्थ:--केवलभाव अर्थात् केवलज्ञानरूप ही एक भाव होते हुए अरहंत होते हैं ऐसा जानना। मद अर्थात् मानकषाय से हुआ गर्व, राग-द्वेष अर्थात् कषायोंके तीव्र उदय से होने वाले प्रीति और अप्रीतिरूप परिणाम इनसे रहित हैं, पच्चीस कषायरूप मल उसका द्रव्य कर्म तथा उनके उदय से हुआ भावमल उससे रहित हैं, इसीलिये अत्यन्त विशुद्ध हैं--निर्मल हैं चित्त परिणाम अर्थात् मन के परिणामरूप विकल्प रहित हैं, ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमरूप मन का विकल्प नहीं है, इसप्रकार केवल एक ज्ञानरूप वीतरागस्वरूप 'भाव अरहंत' जानना।। ४०।। आगे भाव ही का विशेष कहते हैं:--- सम्मइंसणि पस्सदि जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया। सम्मत्तगुणविसुद्धो भावो अरहस्स णायव्वो।। ४१ ।। सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान। सम्यक्त्वगुणविशुद्धः भावः अर्हतः ज्ञातव्यः।। ४१।। अर्थ:--' भाव अरहंत' सम्यग्दर्शनसे तो अपने को तथा सबको सत्तामात्र देखते हैं इसप्रकार जिनको केवलदर्शन है, ज्ञान से सब द्रव्य-पर्यायों को जानते हैं इसप्रकार जिनको केवलज्ञान है, जिनको सम्यक्त्व गुण से विशुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व पाया जाता है,--इसप्रकार अरहंत का भाव जानना। भावार्थ:--अरहंतपना घातीकर्मके नाश से होता है। मोहकर्म नाश से सम्यक्त्व और कषाय के अभाव से परम वीतरागता सर्वप्रकार निर्मलता होती है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म के नाश से अनंतदर्शन-अनंतज्ञान प्रकट होता है, इनसे सब द्रव्य-पर्यायोंको एक समयमें प्रत्यक्ष देखते हैं और जानते हैं। द्रव्य छह हैं--उनमें जीव द्रव्य की संख्या अनंतानंत है, पुद्गलद्रव्य उससे अनंतानंत गुणे हैं , आकाशद्रव्य एक है वह अनंतानंत प्रदेशी है इसके मध्यमें सब जीव - पुद्गल असंख्यात प्रदेश में स्थित हैं, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य ये दोनों असंख्यातप्रदेशी हैं इनसे लोक-आलोक का विभाग है, उसी लोकमें ही कालद्रव्य के असंख्यात कालाणु स्थित हैं। इन सब द्रव्योंके परिणामरूप पर्याय हैं वे एक-एक द्रव्यके अनंतानंत हैं, उनको कालद्रव्यका परिणाम निमित्त है, उसके निमित्त से क्रमरूप होता समयादिक 'व्यवहारकाल' कहलाता है। इसकी गणना अतीत, अनागत, वर्तमान द्रव्योंकी पर्यायें अनंतानंत हैं, इन सब द्रव्य-पर्यायोंको अरहंतका दर्शन-ज्ञान एकसमयमें देखता जानता है, देखे दरशथी, ज्ञानथी जाणे दरव-पर्यायने, सम्यक्त्व गुणसुविशुद्ध छे, -अर्हतनो आ भाव छ। ४१। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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