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बोधपाहुड]
[१२५ करे, तत्पश्चात् भाषाजाति मनोजातिकी वर्गणा से अन्तर्मुहूर्त मेह ही भाषा, मनःपर्याप्ति पूर्ण करे, इसप्रकार छहों पर्याप्ति अंतर्मुहूर्त में पूर्ण करता है, तत्पश्चात् आयुपर्यन्त पर्याप्त ही कहलाता है और नोकर्मवर्गणा का ग्रहण करता ही रहता है। यहाँ आहार नाम कवलाहार नहीं जानना। इसप्रकार तेरहवें गुणस्थान में भी अरहंतके पर्याप्त पूर्ण ही है, इसप्रकार पर्याप्ति द्वारा अरहंत की स्थापना है।। ३४ ।।
आगे प्राण द्वारा कहते हैं:---
पंच वि इंदियपाणा मणवयकाएण तिण्णि बलपाणा। आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दह पाणा।।३५।।
पंचापि इंद्रियप्राणाः मनोवचनकायैः त्रयो बलप्राणाः। आनप्राणप्राणाः आयुष्कप्राणेन भवंति दशप्राणाः।। ३५।।
अर्थ:--पाँच इन्द्रियप्राण, मन-वचन-काय तीन बलप्राण, एक श्वासोच्छ्वास प्राण और एक आयुप्राण ये दस प्राण हैं।
भावार्थ:--इसप्रकार दस प्राण कहें उनमें तेरहवें गुणस्थान में भावइन्द्रिय और भावमन का क्षयोपशमभावरूप प्रवृत्ति नहीं है इस अपेक्षा से कायबल, वचनबल, श्वासोच्छवास, आयु ये चार प्राण हैं और द्रव्य अपेक्षा दसों ही हैं। इसप्रकार प्राण द्वारा अरहंत का स्थापन है।। ३५।।
आगे जीवस्थान द्वारा कहते हैं:--
मणुयभवे पंचिंदिय जीवट्ठाणेसु होइ चउदसमे। एदे गुणगणजुत्तो गुणमारुढो हवइ अरहो।।३६ ।।
इन्द्रियप्राणो पांच, त्रण बळप्राण मन-वच-कायना, बे आयु-श्वासोच्छवास प्राणो, -प्राण ए दस होय त्यां। ३५ ।
मानवभवे पंचेन्द्रि तेथी चौदमे क्ववस्थान छे; पूर्वोक्त गुणगणयुक्त, 'गुण'-आरूढ श्री अर्हत छ। ३६ ।
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