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बोधपाहुड]
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केवलज्ञान उत्पन्न होने पर दस होते हैं:--- १-उपसर्ग का अभाव, २-अदयाका अभाव, ३-शरीर की छाया न पड़ना, ४-चतुर्मख दिखना, ५-सब विद्याओं का स्वामित्व, ६नेत्रोंके पलक न गिरना, ७-शतयोजन सुभिक्षता, ८-आकाशगमन, ९-कवलाहार नहीं होना, १०-नख-केशोंका नहीं बढ़ना, ऐसे दस होते हैं।
चौदह देवकृत होते हैं:---- १-सकलार्द्धमागधी भाषा, २-सब जीवोंमें मैत्री भाव, ३सब ऋतुके फल फूल फलना, ४-दर्पण समान भूमि, ५-कंटक रहित भूमि, ६-मंद सुगंध पवन, ७-सबके आनंद होना, ८-गंधोदक वृष्टि, ९-पैरोंके नीचे कमल रचना, १०-सर्वधान्य निष्पत्ति, ११-दसों दिशाओं का निर्मल होना, १२-देवों के द्वारा आह्वानन, १३-धर्मचक्रका आगे चलना, १४-अष्टमंगलद्रव्योंका आगे चलना।
अष्ट मंगल द्रव्योंके नाम १-छत्र, २-ध्वजा, ३-दर्पण, ४-कलश, ५-चामर, ६-भृङ्गार (झारी), ७-ताल (ठवणा), और ८-स्वास्तिक ( साँथिया) अर्थात् सुप्रतचिक ऐसे आठ होते हैं। चौंतीस अतिशय के नाम कहे।
आठ प्रातिहार्य होते हैं उनके नाम ये हैं - १-अशोक वृक्ष, २-पुष्पवृष्टि, ३-दिव्यध्वनि, ४-चामर, ५-सिंहासन, ६–भामण्डल, ७-दुन्दुभि वादित्र और ८-छत्र ऐसे आठ होते हैं। इसप्रकार गुणस्थान द्वारा अरहंत का स्थापन कहा।। ३२।।
अब आगे मार्गणा द्वारा कहते हैं:---
गइ इंदियं च काए जोए वेए कसाय णाणे य। संजम दंसण लेसा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे।।३३।।
गतौ इन्द्रिये च काये योगे वेदे कषाये ज्ञाने च। संयम दर्शने लेश्यायां भव्यत्वे सम्यक्त्वे संज्ञिनि आहारे।।३३।।
अर्थ:--गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार इसप्रकार चौदह मार्गणा होती है।
गति-इन्द्रि-काये, योग-वेद-कषाय-संयम-ज्ञानमां, दग-भव्य-लेश्या-संज्ञी-समकित-आ' रमा ओ स्थापवा। ३३ ।
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