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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates बोधपाहुड ] [ १२१ अर्थः--जरा-बुढ़ापा, व्याधि - रोग, जन्म-मरण, चारों गतियोंमें गमन, पुण्य-पाप और दोषोंको उत्पन्न करने वाले कर्मोंका नाश करके, केवलज्ञानमयी अरहंत हुआ हो वह 'अरहंत' 1 भावार्थ:--पहिली गाथा में गुणोंके सद्भाव से अरहंत नाम कहा और इस गाथा में दोषोंके अभाव से अरहंत नाम कहा । राग, द्वेष, मद, मोह, अरति, चिंता, भय, निद्रा, विषाद, खेद और विस्मय ये ग्यारह दोष तो घातिकर्म के उदय से होते हैं और क्षुधा तृशा, जन्म, जरा, मरण, रोग ओर स्वेद ये सात दोष अघाति कर्म के उदय से होते हैं । इस गाथा में जरा, रोग, जन्म, मरण और चार गतियों में गमन का अभाव कहने से तो अघातिकर्म से हुए दोषोंका अभाव जानना, क्योंकि अघातिकर्म में इन दोषोंको उत्पन्न करने वाली पापप्रकृतियोंके उदय का अरहंत को अभाव है और राग-द्वेषादिक दोषोंका घातिकर्म के अभाव से अभाव 1 यहाँ कोई पूछे- - अरहंत को मरण का और पुण्य का अभाव कहा; मोक्षगमन होना यह 'मरण' अरहंत के है और पुण्य प्रकृतियों का उदय पाया जाता है, उनका अभाव कैसे ? उसका समाधान--- यहाँ मरण होकर फिर संसार में जन्म हो इसप्रकार के 'मरण' की अपेक्षा यह कथन है, इसप्रकार मरण अरहंत के नहीं है, उसीप्रकार जो पुण्य प्रकृतिका उदय पाप प्रकृति सापेक्ष करे इसप्रकार पुण्य के उदयका अभाव जानना अथवा बंध अपेक्षा पुण्यका भी बंध नहीं है। सातावेदनीय बंधे वह स्थिति - अनुभाग बिना अबंधतुल्य ही है । प्रश्नः - केवली के असाता वेदनीय का उदय भी सिद्धांत में कहा है, उसकी प्रकृति कैसे है ? उत्तर:- इसप्रकार जो असाता का अत्यन्त मंद बिलकुल मंद अनुभाग उदय है और साता का अति तीव्र अनुभाग उदय है, उसके वश से असाता कुछ बाह्य कार्य करने में समर्थ नहीं है, सूक्ष्म उदय देकर खिर जाता है तथा संक्रमणरूप होकर सातारूप हो जाता है इसप्रकार जानना। इसप्रकार अनंत चतुष्टय सहित सर्वदोष रहित सर्वज्ञ वीतराग हो उसको नाम से ' अरहंत' कहते हैं ।। ३० ।। आगे स्थापना द्वारा अरहंत का वर्णन करते हैं:-- - गुणठाणमग्गणेहिं य पज्जत्तीपाणजीवठाणेहिं । ठावण पंचविहेहिं पणयव्वा अरहपुरिसस्स ।। ३१ ।। प्रकारथी, छे स्थापना अर्हंतनी कर्तव्य पांच - गुण, मार्गणा, पर्याप्ति तेम ज प्राणने जीवस्थानथी । ३१ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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