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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ११० [अष्टपाहुड ज्ञानमयी है---जीव अजीवादि पदार्थों को जानने वाला है। यहाँ 'निर्ग्रन्थ' और 'ज्ञानमयी' ये दो विशेषण दर्शन के भी होते हैं, क्योंकि दर्शन है सो बाह्य तो इसकी मूर्ति निर्ग्रन्थ है और अंतरंग ज्ञानमयी है। इसप्रकार मुनिके रूपको जिनागम में 'दर्शन' कहा है तथा ऐसे रूपके श्रद्धानरूप सम्यक्त्वस्वरूप को 'दर्शन' कहते हैं। भावार्थ:--परमार्थरूप 'अंतरंग दर्शन' तो सम्यक्त्व है और ‘बाह्य' उसकी मूर्ति, ज्ञानसहित ग्रहण किया निर्ग्रन्थ रूप, इसप्रकार मुनिका रूप है सो 'दर्शन' है, क्योंकि मतकी मूर्तिको दर्शन कहना लोकमें प्रसिद्ध है।। १४ ।। आगे फिर कहते हैं:-- जह फुल्लं गंधमयं भवदि हु खीरं स धियमयं चावि। तह दसणं हि सम्म णाणमयं होइ रूवत्थं।।१५।। यथा पुष्पं गंधमयं भवति स्फुटं क्षीरं तत् घृतमयं चापि। तथा दर्शनं हि सम्यक् ज्ञानमयं भवति रूपस्थम्।।१५।। अर्थ:--जैसे फूल गंधमयी है, दूध घृतमयी है वैसे ही दर्शन अर्थात् मत में सम्यक्त्व है। कैसा है दर्शन ? अंतरंग में ज्ञानमयी है और बाह्य रूपस्थ है--मुनि का रूप है तथा उत्कृष्ट श्रावक, अर्जिकाका रूप है। भावार्थ:--'दर्शन' नाम का मत प्रसिद्ध है। यहाँ जिनदर्शन में मुनि श्रावक और अर्जिकाका जैसा बाह्य भेष कहा सो 'दर्शन' जानना और इसकी श्रद्धा सो 'अंतरंग दर्शन' जानना। ये होनों ही ज्ञानमयी हैं, यथार्थ तत्त्वार्थका जाननेरूप सम्यक्त्व जिसमें पाया जाता है, इसीलिये फूलमें गंधका और दूधमें घृतका दृष्टांत युक्त है; इसप्रकार दर्शनका रूप कहा। अन्यमतमें तथा कालदोष से जिनमतमें जैनाभास भेषी अनेक प्रकार अन्यथा कहते हैं जो कल्याणरूप नहीं हैं, संसारका कारण है।। १५ ।। [५] आगे जिनबिम्बका निरूपण करते हैं:--- ज्यम् फूल होय सुगंधमय ने दूध घृतमय होय छे, रूपस्थ दर्शन होय सम्यग्ज्ञानमय ओवी रीते। १५ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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