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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १०८ [अष्टपाहुड भावार्थ:--जाननेवाला, देखनेवाला, शुद्धसम्यक्त्व, शुद्धचारित्रस्वरूप, निग्रन्थ संयमसहित, इसप्रकार मुनिका स्वरूप है वही 'प्रतिमा' है, वही वंदन करने योग्य है; अन्य कल्पित चंदन करने योग्य नहीं है और वैसे ही रूपसदृश घातु-पाषाण ही प्रतिमा हो वह व्यवहारसे वंदने योग्य है।। ११।। आगे फिर कहते हैं:-- दंसणअणंतणाणं अणंतवीरिय अणंतसुक्खा य। सासयसुक्ख अदेहा मुक्का कम्मट्ठबंधेहिं।।१२।। निरुवममचलमखोहा णिम्मिविया जंगमेण रूवेण। सिद्धाणम्मि ठिया वोसरपडिमा धुवा सिद्धा।।१३।। दर्शनानन्तज्ञानं अनन्तवीर्याः अनंतसुखाः च। शाश्वतसुखा अदेहा मुक्ताः कर्माष्टकबंधैः।। १२ ।। निरुपमा अचला अक्षोभाः निर्मापिता जंगमेन रूपेण। सिद्धस्थाने स्थिता: व्युत्सर्गप्रतिमा धुवाः सिद्धाः।।१३।। अर्थ:--जो अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य, अनंतसुख सहित हैं; शाश्वत अविनाशी सुखस्वरूप हैं, अदेह हैं-कर्म नोकर्मरूप पुद्गलमयी देह जिनके नहीं है; अष्टकर्म के बंधनसे रहित हैं, उपमा रहित हैं--जिसकी उपमा दी जाय ऐसी लोक में वस्तु नहीं है; अचल हैं-- प्रदेशोंका चलना जिनके नहीं है; अक्षोभ हैं--जिनके उपयोग में कुछ क्षोभ नहीं है, निश्चल हैं--जंगमरूप से निर्मित हैं; कर्मसे निर्मुक्त होनेके बाद एक समयमात्र गमनरूप हैं, इसलिये जंगमरूप से निर्मापित हैं; सिद्धस्थान जो लोकका अग्रभाग उसमें स्थित हैं; व्युत्सर्ग अर्थात् कायरहित हैं--जैसा पूर्व शरीर में अकार था वैसा ही प्रदेशोंका आकार-चरम शरीर से कुछ कम है। १ सं० प्रतिमें 'निर्मापिताः' 'अजगमेन रूपेण' ऐसी छाया है। निःसीम दर्शन-ज्ञान ने सुख-वीर्य वर्ते जेमने, शाश्वतसुखी, अशरीरने कर्माष्टबंधविमुक्त जे। १२ । अक्षोभ-निरूपम-अचल-ध्रुव, उत्पन्न जंगम रूपथी, ते सिद्ध सिद्धिस्थानस्थित, अत्सर्गप्रतिमा जाणवी। १३। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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