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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चारित्रपाहुड] [९७ अर्थ:--हे भव्य ! तू दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनोंको परमश्रद्धा जान, जिनको जानकर योगी मुनि थोड़े ही कालमें निर्वाण को प्राप्त करता है। भावार्थ:--सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रयात्मक मोक्षमार्ग है, इसको श्रद्धापूर्वक जाननेका उपदेश है, क्योंकि इसको जाननेमें मुनियोंको मोक्षकी प्राप्ति होती है।। ४०।। आगे कहते हैं कि इसप्रकार निश्चयचारित्ररूप ज्ञानका स्वरूप कहा, जो इसको पाते हैं वे शिवरूप मन्दिरमें रहनेवाले होते हैं:-- 'पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविशुद्धभावसंजुत्ता। होंति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा।। ४१।। प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मल सुविशुद्धभावसंयुक्ताः। भवंति शिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः।। ४१ ।। अर्थ:--जो पुरुष इस जिनभाषित ज्ञानरूप जलको पीकर अपने निर्मल भले प्रकार विशुद्धभाव संयुक्त होते हैं वे पुरुष तीन भुवन के चूड़ामणि और शिवालय अर्थात् मोक्षरूपी मन्दिर में रहेन वाले सिद्ध परमेष्ठि होते हैं। भावार्थ:--जैसे जलसे स्नान करके शुद्ध होकर उत्तम पुरुष महलमें निवास करते हैं वैसे ही यह ज्ञान, जलके समान है और आत्माके रागादिक मैल लगनेसे मलिनता होती है, इसलिये इस ज्ञानरूप जलसे रागादिक मलको धोकर जो अपनी आत्मा को शुद्ध करते हैं वे मुक्तिरूप महल में रहकर आनन्द भोगते हैं, उनको तीन भुवनके शिरोमणि सिद्ध कहते हैं।। ४१।। आगे कहते हैं कि जो ज्ञानगुण से रहित हैं वे इष्ट वस्तुको नहीं पाते हैं, इसलिये गुण - दोषको जानने के लिये ज्ञानको भले प्रकार से जाननाः-- १ पाठान्तर :- पीऊण। २ पाठान्तर :- पीत्वा। जे ज्ञानजल पीने लहे सुविशुद्ध निर्मल परिणति, शिवधामवासी सिद्ध थाय-त्रिलोकना चूडामणि। ४१ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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