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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चारित्रपाहुड] ___ भावार्थ:--मुनि पंचमहाव्रतरूप संयमका साधन करते हैं, उस संयमकी शुद्धता के लिये पाँच समितिरूप प्रवर्तते हैं, इसी से इसका नाम सार्थक है -- ‘सं' अर्थात् सम्यक्प्रकार 'इति' अर्थात् प्रवृत्ति जिसमें हो सो समिति है। चलते समय जूडा प्रमाण ( चार हाथ ) पृथवी देखता हुआ चलता है, बोले तब हितमित वचन बोलता है, लेवे तो छियालिस दोष, बत्तीस अंतराय टालकर, चौदह मलदोष रहित शुद्ध आहार लेता है, धर्मोपकरणोंको उठाकर ग्रहण करे सो यत्नपूर्वक लेते है। ऐसे ही कुछ क्षेपण करें तब यत्न पूर्वक क्षेपण करते हैं, इसप्रकार निष्प्रमाद वर्ते तब संयमका शुद्ध पालन होता है, इसीलिये पंचसमितिरूप प्रवृत्ति कही है। इसप्रकार संयमचरण चारित्रकी प्रवृत्तिका वर्णन किया।। ३७।। अब आचार्य निश्चियचारित्रको मन में धारण कर ज्ञान का स्वरूप कहते हैं:-- भव्वजणबोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहि जह भणियं। णाणं णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेहि।।३८।। भव्यजन बोधनार्थं जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितं। ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं आत्मानं तं विजानीहि।। ३८।। अर्थ:--जिनमार्गमें जिनेश्वरदेवने भव्यजीवोंके संबोधनेके लिये जैसा ज्ञान और ज्ञानका स्वरूप कहा है उस ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसको हे भव्यजीव! तू जान। भावार्थ:--ज्ञानको और ज्ञानके स्वरूपको अन्य मतवाले अनेक प्रकारसे कहते हैं, वैसा ज्ञान और वैसा स्वरूप ज्ञानका नहीं है। जो सर्वज्ञ वीतरागदेव भाषित ज्ञान ओर ज्ञानका स्वरूप है वही निर्बाध सत्यार्थ है और ज्ञान है वही आत्मा है तथा आत्माका स्वरूप है, उसको जानकर उसमें स्थिरता भाव करे, परद्रव्योंसे रागद्वेष नहीं करे वही निश्चयचारित्र है, इसलिये पूर्वोक्त महाव्रतादिकी प्रवृत्ति करके इस ज्ञानस्वरूप आत्मामें लीन होना इसप्रकार उपदेश है।। ३८।। रे! भव्यजनबोधार्थ जिनमार्गे का जिन जे रीते, ते रीत जाणो ज्ञान ने ज्ञानात्म आत्माने तमे। ३८ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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