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अन्तमें, –यह अष्टप्राभूत परमागम भव्य जीवोंको जिनदेव द्वारा प्ररूपित आत्म शान्तिका मार्ग बताता है। जब तक इस परमागमके परम गम्भीर और सूक्ष्म भाव यथार्थतया हृदयगत न हो तब तक दिनरात वही मन्थन, वही पुरुषार्थ कर्तव्य है। इस परमागम का जो कोई भव्य जीव आदर सह अभ्यास करेगा, श्रवण करेगा, पठन करेगा, प्रसिद्ध करेगा, वह अविनाशी स्वरूपमय, अनेक प्रकारकी विचित्रतावाले, केवल एक ज्ञानात्मक भावको उपलब्ध कर अग्र पदमें मुक्तिश्री का वरण करेगा।
('पंच परमागम' के उपोद्धात से संकलित।)
वैशाख शुक्ला २, वि. सं२०५२ १०६ वीं कहानगुरु जन्मजयन्ती
साहित्यप्रकाशनसमिति, श्री दि. जैन स्वाध्यायमन्दिर ट्रस्ट सोनगढ़-३६४२५० (सौराष्ट्र)
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