________________
७८]
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
अब कहते हैं कि जो ऐसे कारण सहित हो तो सम्यक्त्व छोड़ता है:--
उच्छाहभावणासंपसंससेवा कुदंसणे सद्धा । अण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदि जिणसम्मं ।। १३ ।।
उत्साह भावना शंप्रशंसासेवा कुदर्शने श्रद्धा। अज्ञानमोहमार्गे कुर्वन् जहाति जिनसम्यक्त्वम्।। १३ ।।
अर्थः-- कुदर्शन अर्थात् नैयायिक वैशेषिक, सांख्यमत, मीमांसकमत, वैदान्त बौद्धमत, चार्वाकमत, शून्यवादके मत इनके भेष तथा इनके भाषित पदार्थ और श्वेताम्बरादिक जैनाभास इनमें श्रद्धा, उत्साह, भावना, प्रशंसा और इनकी उपासना व सेवा जो पुरुष करता है वह जिनमत की श्रद्धारूप सम्यक्त्व को छोड़ता है, वह कुदर्शन, अज्ञान और मिथ्यात्व का मार्ग है।
[ अष्टपाहुड
भावार्थ:--अनादिकाल से मिथ्यात्वकर्म के उदय से ( उदयवश ) यह जीव संसार में भ्रमण करता है सो कोई भाग्य के उदय से जिनमार्ग की श्रद्धा हुई हो और मिथ्तामत के प्रसंग में मिथ्तामत में कुछ कारण से उत्साह, भावना, प्रशंसा, सेवा, श्रद्धा उत्पन्न हो तो सम्यक्त्वका अभाव हो जाय, क्योंकि जिनमत के सिवाय अन्य मतों में छद्मस्थ अज्ञानियों द्वारा प्ररूपित मिथ्या पदार्थ तथा मिथ्या प्रवृत्तिरूप मार्ग है, उसकी श्रद्धा आवे तब जिनमत की श्रद्धा जाती रहे, इसलिये मिथ्यादृष्टियों का संसर्ग ही नहीं करना, इसप्रकार भावार्थ जानना।। १३।।
आगे कहते हैं कि जो ये ही उत्साह भावनादिक कहे वे सुदर्शन में हों तो जिनमत की श्रद्धारूप सम्यक्त्व को नहीं छोड़ता है---
अज्ञानमोहपथे कुमतमां भावना, उत्साह ने। श्रद्धा, स्तवन, सेवा करे जे, ते तजे सम्यक्त्वने । १३ ।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com