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आ मुख....
संतबलजी के गीता-दर्शन को मैं प्रस्तावना लिखूँ औसी माँग हुई। और गीता के नाम से मैंने उसे कबूल किया । नहीं तो अकसर जैसे झमेले में मैं नहीं पड़ता। क्योंकि मेरी हालत मैं जानता हूँ। उनकी पूरी किताब तो मेरे सामने नहीं है। तीन चार अध्याय छपे हुए आये हैं । उनको भी बारीकीसे मैं नहीं देख पाया । यह मेरा नसीब मैं जानता ही था ।
गीता पर शंकरसे लेकर गाँधीजी तक अनेक महापुरुषोंने अपनी कलम चलाई है। फिर भी नई नई टीकायें लिखी जाती हैं, और लिखी जायगी। ये सब प्रयास निरर्थक नहीं गिने जायेंगे, जब तक वे किसी-न-किसी मनुष्य के जीवन में मददगार हो सकते हैं। और गीता की यह खूबी है कि वह जीवन के लिए प्रेरणा देती है । सर्व वादों से अलिप्त रह कर गीताने सब का सार खींच लिया है । और इसी लिए निश्चयपूर्वक वह मनुष्य को निष्काम आचरण में प्रवृत्त करती है
लेकिन गीता में से भी निकानेवालोंने अनेक वाद निकाले हैं । और अगर उनके फेरमें हम पड़ते हैं तो गीता भी एक पांडित्यग्रंथ बन सकता है; और जीवन के लिए निरुपयोगी हो सकता है। इस लिए मैं तो हमेशां भाष्यों को अलग रख कर गीता-माता का ही
ગીતાદર્શન