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तपस्वी-जीवन करने गया था । भिक्षाचर्या से निपट कर शाला में आया तो भगवान् दृष्टिगोचर नहीं हुए । उसने सोचा कि वे बस्ती में गये होंगे । वह फिर नगर में गया और राजगृह का एक एक मुहल्ला और एक एक गली खोज डाली पर महावीर का कहीं पता न लगा । अब उसने सोचा कि देवार्य कहीं बाहर चले गये हैं । वह लौट कर अपने निवास स्थान पर आया और जो कुछ अपने पास आजीवका के साधन थे ब्राह्मणों को अर्पण कर दिए और आप सिर मुंडवा कर महावीर की खोज में निकल पड़ा ।
राजगृह के शाखापुरों में ढूँढता हुआ मंखलिपुत्र कोल्लागसंनिवेश पहुँचा । उसने वहाँ एक तपस्वी की तपस्या और उन्हें पारणा कराने के फल की चर्चा सुनी तो सोचा कि ये बातें देवार्य के सिवा अन्यत्र नहीं घट सकतीं, अवश्य ही देवार्य यहाँ होने चाहिये । वह गाँव में जा ही रहा था कि भगवान् गाँव के भीतर से लौटते हुए उसे रास्ते में मिल गए । गोशालक ने नमस्कार किया और हाथ जोड़ कर बोला-'भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य और मैं आपका शिष्य ।' गोशालक की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए भगवान् ने कहा-'अच्छा ।' ३. तीसरा वर्ष (वि० पू० ५१०-५०९)
कोल्लाग से भगवान् गोशालक के साथ सुवर्णखल की तरफ जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक जगह ग्वालों की टोली मिली जो हाँड़ी में खीर पका रही थी । गोशालक बोला-'देखते हैं, भगवन् ! ग्वाले खीर पका रहे हैं ! जरा ठहर जाइये । हम भी यहाँ भोजन करके चलेंगे ।'
भगवान् ने कहा-'यह खीर पकेगी ही नहीं । बीच में ही हाँडी फट कर गिर जायगी।'
गोशालक ने ग्वालों से कहा- 'सुनते हो ! ये त्रिकालज्ञानी देवार्य कहते हैं—'यह खीर की हाँडी टूट जायगी ।'
गोशालक की चेतावनी से गोपमंडली विशेष सतर्क हुई और बाँस की खपाटियों से हाँडी को अच्छी तरह बाँध दिया और चारों ओर से उसे घेर कर बैठ गये ।
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