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'सलो' 'अञ्जणं' वगेरे शब्दोमां 'इ' अने '' मात्र पोताना वर्गना व्यंजनो साथे संयुक्त होय त्यारे ज व्यवहारमां आवे छे, पण तेमनो उपयोग प्राकृतमां स्वतंत्र नथी. माटे तेमने वर्गीय व्यंजनो गणावतां गणावेला नथी. संस्कृतमां पण तेमनो स्वतंत्र प्रयोग नहि जेवो ज छे.
'क' 'ज' वगेरे सजातीय संयुक्त व्यंजनोनो प्राकृतमा खूब प्रचार के अने केटलाक अपवादोमां विजातीय संयुक्त व्यंजनोनो पण उपयोग थयेलो छे, एवा व्यंजनोमां 'द्र' 'म्ह' 'ण्ह' अने 'ल्ह' मुख्य छे. जैनसूत्रोमां क्यांय 'स्म' नो पण उपयोग थयेलो छे. आ सिवाय 'क' 'क्त' वगेरे विजातीय संयुक्त व्यंजनोनो प्राकृतमां क्यांय उपयोग नधी.
'विसर्गनो तो प्राकृतमा प्रयोग ज नथी.
'कण्ठ' 'तन्तु' अने 'थम्भ' वगेरे शब्दोमां 'ण' 'न्' अने 'म्' नो उपयोग तो छ ज पण ते त्रणे स्वतंत्र पण वपराय छे. जेमके-गुण, हीण, मुणि. नमी, नाह, नई. मुह, मउड, मोण वगेरे.
[यादी:-'कण्ठ' 'तन्तु' 'थम्भ' वगेरे शब्दोमां '' 'न्' अने 'म्' नुं नासिकास्थान ज छे त्यारे 'गुण' 'नई 'मउड' वगेरे शब्दोमां तो तेओ वर्गीय अक्षर तरीके होवाथी तेमनुं वर्गोक्त ते ते स्थान छे, ए मेद ध्यानमा राखवानो छे.]
समास-आ विशे संस्कृतनी योजना प्रमाणे ज समझी लेवार्नु छे तेथी आ पुस्तकमां एने माटे कशुं लखवामां आव्युं नथी.