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________________ मील उत्तर पश्चिम में है। __पल्लीवाल कहे जाने वाले ब्राह्मण वैश्यों के अतिरिक्त बढ़ई, छीपी, लोहार, स्वर्णकार आदि भी भारत के भिन्न-भिन्न भागों में बसे हुये पाये जाते हैं। इनमें पल्लीवाल ब्राह्मण और पल्लीवाल वैश्य तो पाली के पीछे एक जाति के रूप में ही प्रतिष्ठित हो गये हैं। पाली में भी इन दोनों वर्गों में घनिष्ट संबंध यजमान पुरोहित रहने का प्रमाण मिलता है। जैसे श्रीमाली वैश्यों का श्रीमाली ब्राह्मणों के साथ संबंध रहा हुआ प्राप्त होता है ठीक उसी भांति का पल्लीवाल वैश्य और ब्राह्मणों में संबंध था। पाली की प्राचीनता का प्राचीनतम प्रमाण पाली नगर के उत्तर पूर्व में बना हुआ पातालेश्वर महादेव का विक्रमीय नौवीं शताब्दि का बना हुआ मंदिर है। इस प्रमाण से यह कहा जा सकता है कि पाली की प्राचीनता नवीं शताब्दि से भी पूर्व मानी जा सकती है। आज इतना प्राचीन पाली उतना बड़ा नगर भले न भी रहा हो, फिर भी वह राजस्थान का प्रसिद्ध व्यापारिक नगर तो आज भी है ओर वहाँ पल्लीवाल ब्राह्मणों के लगभग 500 घर आज भी बसते हैं। एक मोहल्ला आज भी पल्लीवाल मोहल्ला के नाम से वहाँ कीर्तित है। पाली के पल्लीवाल ब्राह्मण और वैश्य दोनों बड़े-बड़े व्यापारी वर्ग रहे हैं। इनकी मांडवी और सूरत जैसे व्यापारी नगरों में कोठियाँ और दुकानें थीं। ये दूर-दूर तक व्यापार करने जाया आया करते थे। खंभात जैसे सुदूर बंदर नगर में जैन मंदिर और ज्ञान भंडारों में पल्लीवाल श्वेतांबर जैन श्रेष्ठियों द्वारा लिखवाई हई कई ग्रंथ प्रतियां और प्रतिष्ठित प्रतिमायें सिद्ध कर रही हैं कि विक्रम की तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दि तक तो श्वेतांबर पल्लीवाल कच्छ, काठियावाड़, उत्तर गुर्जर पतन के प्रदेशों में सर्वत्र फैल चुके थे। प्रस्तुत इतिहास में वर्णित कई परिचयों से यह विश्वास किया जा सकता है। राजस्थान के जयपुर, भरतपुर, अलवर राज्यों में व उत्तर प्रदेश में आगरा, ग्वालियर, मथुरा विभागों में भी पल्लीवाल वैश्य कुल विक्रम की 15-16 वीं शताब्दी पर्यंत भरपूर फैल चुके थे। इसके प्रमाण में भी वर्तमान प्रस्तुत इस लघु इतिहास में कुछ प्रसंग आये हैं। एक दंतकथा के अनुसार पाली को, वहाँ के समस्त पल्लीवाल वैश्य और ब्राह्मणों को अकस्मात भारी धर्म संकट उपस्थित होने पर छोड़ कर चला जाना पड़ता था। जाना ही नहीं पड़ा, परंतु साथ ही यह शपथ लेकर कि कोई भी पल्लीवाल अपने को अपनी पिता की सच्ची संतान मानने वाला, लौट कर पाली में - श्री पल्लीवाल जैन इतिहास 21
SR No.007799
Book TitlePalliwal Jain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi, Bhushan Shah
PublisherMission Jainattva Jagaran
Publication Year2017
Total Pages42
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size15 MB
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