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आत्मोपदेशमाला-प्रकरणम्
सम्मत्तं सत्तट्ठीभेयविसुद्धं स जीवियंते वि। अवयंतो जिणधम्मो संपत्तो सुरनरिंदत्तं॥१५४॥
(अर्थ) सडसठ भेद से विशुद्ध जिन धर्म को जीतेजी न छोडते हुए सुर और नरेंद्रत्व को प्राप्त हुआ। इत्थंतरम्म निउणो सव्वरओ परहियत्थकारी य ।
मिलिओ एगो पुरिसो सो पुण सुगुरु त्ति नायव्व ॥ १५५॥
(अर्थ) इस तरफ निपुण, सर्वरत, दूसरों का हित करनेवाला ऐसा एक पुरुष मिल गया, फिर वह अच्छा गुरु है, ऐसा जानना
चाहिए।
तव्वयणेणं बीयं कसायचउगं पि अ (व) क्कमेऊणं ।
लद्धो तुम मग्गो नामेणं देसविरइ त्ति॥१५६॥
(अर्थ) उनके वचन से द्वितीय (अप्रत्याखानावरण) कषाय चतुष्क का भी उल्लंघन करके तेरे द्वारा जो मार्ग प्राप्त किया गया है, (वह) देशविरति नामवाला है।
पाणिवह-मुसावाए अदत्त- मेहुण- परिग्गहे चेव । दिसि भोग- दंडसमिई देसे तह पोसहविभागे ॥ १५७ ॥
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(अर्थ) प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा दिग्, भोगोपभोग, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास, अतिथिसंविभागव्रत ये व्रत है।
ईय बारसवयरूवो वंको मग्गो भवे सिवपुरस्स । सो वि मिलइ अंतो वच्चंतो सरलमग्गस्स ॥ १५८॥
(अर्थ) शिवपुर का द्वादशव्रतरूप कुटिल मार्ग है, यह भी आगे जाकर अंत में सरल मार्ग को प्राप्त होता है।
अह तइयं पि य चउगं अइकमिउं कम्मजोगओ तुम ।
सव्वविरइ त्ति नामा पत्तो सिवपुरपहो सरलो ॥१५९॥
(अर्थ) तृतीय और चतुर्थ कषाय का अतिक्रमण करके कर्मयोग से तेरे द्वारा सर्वविरति नाम का सरल मोक्ष रूपी पुर का मार्ग प्राप्त किया।
एयम्मि मुत्तिमग्गे तिगुत्तिगुत्तेण पंचसमिएणं । गंतव्वं जीव! तए न चयज्जइ अन्नहा गंतुं ॥ १६०॥
(अर्थ) हे जीव! तीन गुप्ति और पाच समिति से इस मुक्ति मार्ग पर तेरे द्वारा जाना चाहिए, अन्य जगह जाना योग्य नही हैं। रयणतियं विणा नो लब्भइ गंतुं पहम्मि एयम्मि।
तं पि य हरंति चोरा पमायबहुलस्स पुरिसस्स ॥ १६१॥
(अर्थ) तीन रत्न के बिना(सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र) इस मार्ग पर नहीं जा सकते, बहुत प्रमाद से युक्त ऐसे मनुष्य के (रत्नतय भी) चोर हरण कर जाते हैं।