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अज्ञातकर्तृका ॥प्रज्ञाप्रकाशषट्त्रिंशिका॥ (बालावबोध अनुवाद सह)
प्रज्ञाप्रकाशाय नवीनपाठी श्रीमारुदेव्यं वृषभं प्रणम्य। काव्यानि चाहं कथयामि यानि तज्ज्ञैर्विशुद्धानि समानीतानि॥१॥(इन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ)श्री मरुदेवी (माता) के पुत्र श्री ऋषभदेव को प्रणाम करके प्रज्ञा का प्रकाश प्राप्त करने के लिये मैं नया विद्यार्थी, तज्ज्ञ पुरुषों ने पूर्व परंपरा से जो विशुद्ध काव्य हम तक पहुंचाये हैं उन काव्यों का कथन करता हूँ॥१॥
(बा) प्रज्ञा कहेंता] बुद्धि प्रकाशाय[कहेंता] प्रकाशने अर्थे नवीनपाठी कहेतां नवपाठी श्री मरुदेवी पुत्र नाभिसुत छे वृषभदेवने नमीने वृषभ लंछन छे जेहनें काव्यानि छइ पद(छंदबद्ध?) पूर्णे हू करुं जे त. पंडित] ते मेधावी समानीतानि कहेंता ते काव्य॥१॥
देवेषु देवोऽस्तु निरञ्जनो मे गुरुर्गुरुष्वस्तु दमी शमि(मी) मे।
धर्मेषु धर्मोऽस्तु दयापरो मे त्रीण्येव तत्त्वानि भवे भवे मे॥२॥(उपजाति) (हिन्दी अन्वयार्थ)हर देवों में मेरे देव वह हो जो निरंजन है। हर गुरु में मेरे गुरु वह हो जिनकी इंद्रियाँ वश में है और कषाय शांत है। हर धर्म में मेरा धर्म वह हो जिस में दया प्रधान है। यह तीन तत्त्व मुझे हर जनम में प्राप्त हो।
(बा) देवेषु कहेतां. देवनें विषे देव निरञ्जन [कहेता] निरंजन मे कहेतां माहरे। गुरु. गुरु माहरा गुरु दमवंत दमवंत ते शमि मे कहेतां ते स्मे(छ) माहरे, धर्मेषु कहेतां धर्ममाहे धर्म दयापरो दयामूल धर्म प्रधान मे माहरे। त्रिण्येव कहेतां एत्रण्ये तत्त्वं ते तत्त्व माहरे भवे भवे मे. कहेतां भवो भवने विर्षे माहरे शरण छ।।२॥
येऽनादिमुक्तौ विलसन्ति सिद्धा मायाविमुक्ता गतकर्मबन्धाः। एकस्वरूपाः कथिताः कवीन्द्रैः सिद्धान्तशास्त्रेषु निरञ्जनास्ते॥३॥(इन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ)जो अनादि मुक्ति में विलास करते है,जो माया से मुक्त है, जिन्होने कर्म के बंधनो को तोड़ दिया है, जो हमेंशा एक स्वरूप है, ऐसे (आत्माओं को) सिद्धांत शास्त्रो में 'निरजंन'(वीतराग देव) कहा गया है।
(बा)ये. [कहेता] जे अनादि मुक्त(क्ति)में विर्षे सन्ति [कहेता].सत्य छे मायाविमुक्ता. [कहेतां] मायाव(थ)की रहित छ। गतकर्मबन्धाः [कहेता] गया छे {ह} कर्मबंध जेहनां। एकस्वरूपाः [कहेता]. एकस्वरूप छ। कथिताः. कहेतां कह्या कवीन्द्रैः कवीश्वरे पंडितें। सिद्धांत सत्रनें वीषे निरञ्जना. नीरंजन कह्या छे ते सीध प्रभु॥३॥
तेषां न कायो न मनो न रूपं महाकवीनामकलस्वरूपम्। नेच्छा न मोहः पुनरागमो न द्वेषो न वेषो न मदो न मानम्॥४॥(उपजाति) (हिन्दी अन्वयार्थ)वे जो निरंजन हैं उनको शरीर नहीं होता, मन नहीं होता, रूप नहीं होता, जिन का स्वरूप महान विद्वान् भी नहीं पहचान सकते। उन्हें इच्छा नही होती, मोह नहीं होता, उनका पुनरागमन नहीं होता, उन्हें द्वेष नहीं होता, वेष नहीं होता,