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संपादकीय
'प्रज्ञाप्रकाश षटत्रिंशिका' उपदेशपरक लघु कृति है। इसके कर्ता अज्ञात है। अंतिम श्लोक में उन्होंने अपने आप को यशस्वी गणिवर का शिष्य बताया है। वहीं पर वे लोंका गच्छ के थे ऐसा उल्लेख भी किया है। लोंका गच्छ का इतिहास
विक्रम की सोलहवीं सदी में भारत में मुस्लिम राजाओं का साम्राज्य था। उस समय में इस्लामी संस्कृति की असर में बहुत नयें पंथों का प्रादर्भाव हुआ।(जैन परंपरानो इतिहास भाग ३ पेज नं.२५५) ___विक्रम संवत् १५२८ में तपागच्छ के वृद्ध पोशाल के भट्टारक आचार्य श्री ज्ञानसागर सूरिजी के प्रतिलेखक(लहिया) लोंका शाह से लोंका मत निकला। लोंका शाह दशाश्रीमाली बनिया तथा एक साधारण प्रत लिखनेवाले भोजक थे। आपका जन्म वि. सं. १४८२ में लींबडी (काठियावाड) शहर में हुआ था। इधर कडुआशाह ओसवाल थे। ये दोनों महापुरुष जब किसी कारणवश अहमदाबाद गये और वहाँ जैन यतियों द्वारा इनका कुछ अपमान हुआ तथा उनका आचार्य श्री ज्ञानसागर सूरिजी के साथ वेतन के विषय में साढे सात दोकडे(उस समय का चलन) के लिए झगडा हुआ। फलस्वरूप लोंका शाह ने तपागच्छ के विरुद्ध में अपना नया मत प्रचलित किया। लौकाशाह ने अपनी २७ वर्ष की वय अर्थात् सं.१५०८ में तथा कडुआशाह ने अपनी २९ वर्ष की आयु में यह घोषणा की कि इस समय जैनों में कोई सच्चा साधु है ही नही जो जैनागमों में प्रतिपादित साधु आचार को पाल सकें।
उन्होंने तीर्थ, प्रतिमा, पूजा, विरति का निषेध किया। तत्कालीन बादशाह फिरोजशहा ने इस मत को उत्तेजन दिया। लोंका शाह अच्छे वक्ता थे इसलिए भी उनके मत का प्रचार और स्वीकार तेजी के साथ हुआ। अन्य सभी गच्छों की तरह लोंका गच्छ की भी परंपरा चली। महोपाध्याय श्री धर्मसागरजी गणिवर ने प्रवचन परीक्षा के आंठवें विश्राम की पन्द्रहवीं गाथा में लोंका गच्छ की परंपरा का वर्णन किया है। लोंका गच्छ की अपनी पट्टावलियां भी है। इस गच्छ में से कई साधु यति भी बनें और कई साधुओं ने समय समय पर संवेगी दीक्षा भी ग्रहण की। लोंका शाह का मृत्यु समय वि.स.१५३२ कहा जाता है।
लोंका गच्छ की दो शाखायें प्रचलित थी। १) गुजराती लोंका गच्छ- संवत् १५६८ में ऋषि जगमालजी की पाट पर ऋषि रूपचंदजी आये। उनसे गुजराती लोंकागच्छ का प्रवर्तन हुआ। ये पाटण के वेद गोत्र के ओसवाल थे। २) नागोरी लोंकागच्छ-संवत् १५२८ जगमालजी ऋषि के दूसरे रूपचंदजी नामक शिष्य से नागोरी लोंकागच्छ का प्रवर्तन हुआ। ये राजस्थान प्रान्त के नागोर के सुराणा गोत्र के ओसवाल थे।
लोंका शाह के दसवें पाट पर ऋषि केशवजी आयें। उन्होंने १५८७ में दीक्षा ग्रहण की। इनके समय में लोंका गच्छ की तीन गादियां बनी। (किसी भी श्रमण परंपरा में कोई श्रमण क्रिया में शिथिल हो जाते हैं या आचार में भ्रष्ट हो जाते हैं तो वे यति कहलाते थे। वे शिथिल विहारी होते थे। एक ही जगह में निवास करते थे। जहाँ वे बैठते उस जगह को गादी कहा जाता था। यह गादी उनकी परंपरा का प्रतीक होती थी।)
पहली गादी - पहली गादी गुजरात में वडोदरा में थी। यह गुजराती लोंका गच्छ की गादी थी। इसकी स्थापना ऋषि
१. अधिक जानकारी हेतु 'श्रीमान् लौकाशाह' रचित मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी म.सा. इस पुस्तक का अध्ययन करें।