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गुजराती पद्यकृति
(२.१)
॥ओं नमः सिद्धम्।। उपाध्यायश्री मानविजयजी कृत सप्तनयविवरण रास
(सहाटबार्थ)
(ढाल-१, चउपई) श्री गुरुचरणकमल अनुसरी, श्री श्रुतदेवी रीदइं धरी। तत्त्वरुचिनि बोधन काजि, करुं नय विवरण गुरुसाहाजि॥१.१॥ (१) सूत्र अरथ सवि नय संमति, संदरभित छई श्री जिनमति। आवश्यक निरयुक्तिं अस्यु, देखी कहवा मन उल्लस्यु॥१.२॥ (२) नयई करीनिं सयल पयत्थ, विचारवा बोल्या छई तत्थ। नय विचार करवो ते माटि, जिम पामो समकितनी वाटि॥१.३॥ (३) जो एणिं न विचारें अर्थ, तो तस सूत्र भण्यां सवि व्यर्थ। युगतायुगत भासइ विपरीति, महाभाष्य' माहिं कही रीति॥१.४॥ (४) सूत्रई कहिओ षड्विध व्याख्यान, तेहमां एहथी पदादिक भान। ग्रंथ विशेषावश्यकिं अस्यु, ते पंडितजन रीदयइं वस्युं॥१.५॥ (५) श्रुतज्ञानइ ति एहनिं अधीन, एहथी होइं निज मति पीन। ए चोथो अनुयोगदुआर, एहनो छे बहुलो विस्तार॥१.६॥ (६) चरणकरण जे धरतो सदा, स्वसमय संभालई नवि कदा। निजपरसमय विवेचन करी, आतमतत्त्व न निहालई फिरी॥१.७॥ (७) चरणकरण तस जाई वहिउं, संमति ग्रंथ माहिं इंम कहिउँ। नय विचारथी ते तो होय, ते माटे अभ्यासो सोय॥१.८॥ (८) भावनज्ञानइं एहथी मिलई, सुद्धमारगे दुरमत मति टलई। विसंवाद वरजित होइं बुद्धि, सकल तत्त्वनी पामइं शुद्धि॥१.९॥ (९) नयलक्षण दृष्टांत सरूप, जाणी माहोमाहिं विरूप।
अनेकांतपणे आदरो, मिथ्यामति दूरि परिहरो॥१.१०॥ (१०) १. नत्थि नएहिं विहणं सुत्तं अत्थो य जिणमए किंचि। आसज्ज उ सोआरं नए नयविसारओ बूया।। (विशे. २२७७) २. अत्थं जो न समिक्खई निक्खेवनयप्पमाणओ विहिणा। तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च पडिहाय इ।। (विशे. २२७३) ३. होइ कयत्थो वोत्तुं सपयं सुत्तं सुयं सुयाणुगमो। सुत्तालावन्नासो नामाइन्नासविणिओग।। (विशे. १००९)
सुत्तप्फासियनिज्जुत्तिविणिओगो सेसओ पयत्थाई। पायं सो च्चिय नेगममयाइ मयगोयरो होइ।। (विशे. १०१०) ४. चरणकरणप्पहाणा ससमय-परसमयमुक्कवावारा। चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण याणंति।। (सन्मतितर्क ३.६७)