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नयामतम-२
आया खलु सामाइयं(भगवती श.१ ३.९.सू.९२७) ए आलावैथी जाणिज्यो। तथा जीव स्वरूप जाण्यां विना तप, संयम पुण्यप्रकृति देवभवनो कारण छै। पुव्वतवेणं पुव्वसंजमेणं देवलोए उववज्जंति तो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए।
(भगवती श.२.उ.५,१०२) ए आलावो भगवतीमांहि कह्यो छ।
तथा जे क्रियालोपी आचारहीन छै अने ज्ञानहीन छै अनें गच्छनी लाजै सिद्धांत भणै वांचै छै, व्रत पच्चक्खाण करै छै ते पिण द्रव्यतः जाणवो। अनुयोगद्वारमें कह्यो छै—
जे इमे समणगुणमुक्कजोगी, छक्कायनिरणुकंपा, हया इव उद्दामा, गया इव निरंकुसा, घट्टा मट्ठा तुप्पोट्ठा पंडुरपाउरणा जिणाणं आणाए सच्छंद विहरिऊण उभओकालं आवस्सगस्स उवटुंति तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सया(अनुयोगद्वार-२०)
अर्थ-जिणांने छक्कायनी दया नथी, घोडानी परै, उन्माद हाथीनी परै निरंकुश छै आपणे सरीरने धोवता, मसलता ऊजलै कपडै सिणगार कीधां गच्छने ममत्व भावै माचता, स्वेच्छाचारी वीतरागनी आज्ञान्या भांजता जे तप क्रिया करै छै ते पिण द्रव्यनिक्षेपैमें छै। अथवा ज्योतिष-वैद्यक करै छै अने आपनी लोक पासै महिमा करावै छै अने आपनें आचार्य-उपाध्याय कहावी लोक पासै महिमा करावै छै ते पणि बद्धा खोटै रूपीयै सरिखा छै, घणा भव भमीसी, अवंदनीक छै। ए साख उत्तराध्ययन अनाथी अध्ययनथी जांणज्यो। ____ अनें जे सूत्रना अर्थ गुरुमुखै सीख्या विना, नयप्रमाण जांण्यां विना, निश्चै आत्मस्वरूप ओलख्यां विना, नियुक्ति विना उपदेश देवै छै ते आप तो संसार मांहि बूडै पिण जे तिणें पासै बेसै तेहनें पिण लेई बूडै छै। ए प्रश्नव्याकरणसूत्रनी अनुयोगद्वारनी साख छै—
अज्झत्थं चेव सोलसमं इत्यादि (प्रवचनसारोद्धार-६९६) अनें भगवतीसूत्रमें पिण कह्यो छै— सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसओ भणिओ। इत्तो तईयणुओगो, नाणुन्नाओ जिणवरेहिं॥
(भगवती.९४) अनें केई इम कहै छै जे म्हे सूत्र ऊपरि अर्थ करां छां नियुक्ति टीकानो स्यो काम छै? ते पिण मृषावादी छै। जे प्रश्नव्याकरणमां कह्यो छै—
वयणतियं लिंगतियं इत्यादि जांण्यां विना अने नय-निक्षेपा जांण्या विना उपदेस दैवै छै ते मृषावादी छै। इम अनेक सूत्रमें साख छै तिणें बहुश्रुत पासें उपदेस सुणवो। उत्तराध्ययनमें बहुश्रुतनें मेरुनी समुद्रनी कल्पवृक्षनी उपमा दीधी छै। एतलै नामथापना द्रव्य ए त्रिण निक्षेपा भाव निक्षेपा विना अशुद्ध छ।
हिवै भाव निक्षेपो कहै छै जे नाम, आकार,लक्षण गुणसहित वस्तु ते भाव निक्षेपो जांणवो। उवओगो भावः। इति वचनात्।
१. कालतियं वयणतियं लिंगतियं तह परोक्खपच्चक्ख। उवणयऽवणयचउक्कं, अज्झत्थं चेव सोलसम।। (प्रवचनसारोद्धार ६९६)